________________ प्रथम शतक : उद्देशक-७ ] [ 129 पराणीएणं सद्धि संगाम संगामेड़, से गं जीवे प्रत्थकामए रज्जकामए भोगकामए कामकामए, प्रत्यकंखिए रज्जकंखिए मोगखिए कामखिए, प्रत्पपिवासिते रज्जपिवासिते मोगविवासिए कामपिवासिते, तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदभवसिए तत्तिम्बनभयसाणे तदटोवउत्ते तदपिता तम्भावणाभाविते एतसि णं अंतरंसि कालं करेज नेरतिएसु उबवजह से तेण?णं गोयमा ! जाय अत्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्येगइए नो उववज्जेज्जा। [19-2 प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है ? [16-2 उ.] गौतम ! गर्भ में रहा हुमा संज्ञो पंचेन्द्रिय और समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त (परिपूर्ण) जीव, वीर्यलब्धि द्वारा, वैक्रियलब्धि द्वारा शत्रुसेना का आगमन सुनकर, अवधारण (विवार) करके अपने आत्मप्रदेशों को गर्भ से बाहर निकालता है, बाहर निकाल कर वैक्रियसमुद्घात से समवहत होकर चतुरंगिणी सेना को विक्रिया करता है। चतुरंगिणी सेना की विक्रया करके उस सेना से शत्रुसेना के साथ युद्ध करता है। वह अर्थ (धन) का कामी, राज्य का कामी, भोग का कामी, काम का कामी, अर्थाकांक्षी, राज्याकांक्षी, भोगाकांक्षी, कामाकांक्षी, (अर्थादि का लोलुप), तथा अर्थ का प्यासा, राज्य का प्यासा, भोग-पिपासु एवं कामपिपासु, उन्हीं चित्त वाला, उन्हीं में मन वाला, उन्हीं में प्रात्मपरिणाम वाला, उन्हीं में अध्यवसित, उन्हीं में प्रयत्नशोल, उन्हीं में सावधानता-युक्त, उन्हीं के लिए क्रिया करने वाला, और उन्हीं भावनाओं से भावित (उन्हीं संस्कारों में ओतप्रोत), यदि उसी (समय के) अन्तर में (दौरान) मृत्यु को प्राप्त हो तो वह नरक में उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! यावत् कोई जीव नरक में उत्पन्न होता है और कोई नहीं उत्पन्न होता। 20. जीवे णं भंते ! गभगते समाणे देवलोगेसु उववज्जेज्जा! गोयमा ! अस्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्येगइए नो उववज्जेज्जा। से केणण? गोयमा ! से गं सन्नी पंचिदिए सम्वाहि पज्जत्तोहि पज्जत्तए तहारूवरस समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्रारियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म ततो भवति संवेगजातसड्ढे तिब्बधम्माणुरागरते, से णं जोवे धम्मकामए पुण्णकामए सगकामए मोक्खकामए, धम्मकखिए पुग्णकंखिए सागकंखिए मोक्खकंखिए, धम्मपिवासिए पुण्णपिवासिए सागपिवासिए मोक्खपिवासिए, तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदभवसिते तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्टोवउत्ते तदपितकरणे तब्भावणामाविते एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज्ज देवलोएसु उववज्जति; से तेण?णं गोयमा ! / [20-1 प्र.] भगवन् ! गर्भस्थ जीव क्या देवलोक में जाता है ? 20-1 उ.] हे गौतम ! कोई जीव जाता है, और कोई नहीं जाता। [20-2 प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है ? [20-2 उ.] गौतम ! गर्भ में रहा हुना संज्ञो पंचेन्द्रिय और सब पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव, तथारूप श्रमण या माहन के पास एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन सुन कर, अवधारण करके शीघ्र ही संवेग से धर्मश्रद्धालु बनकर, धर्म में तोत्र अनुराग से रक्त होकर, वह धर्म का कामी, पुण्य का कामी, स्वर्ग का कामी, मोक्ष का कामी, धर्माकांक्षी, पुण्याकांक्षी, स्वर्ग का आकांक्षी, मोक्षाकांक्षी तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org