________________ प्रथम शतक : उद्देशक-८ ] [ 133 [2 प्र.] भगवन् ! एकान्तपण्डित मनुष्य क्या नरकायु बाँधता है ? या यावत् देवायु बांधता है ? और यावत् देवायु बांध कर देवलोक में उत्पन्न होता है ? [2 उ.] हे गौतम ! एकान्तपण्डित मनुष्य, कदाचित् आयु बांधता है और कदाचित् आयु नहीं बांधता। यदि आयु बांधता है तो देवायु बांधता है, किन्तु नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु नहीं बांधता / वह नरकायु नहीं बांधने से नारकों में उत्पन्न नहीं होता, इसी प्रकार तिर्यञ्चायु न बांधने से तिर्यञ्चों में उत्पत्र नहीं होता और मनुष्यायु न बांधने से मनुष्यों में भी उत्पन्न नहीं होता; किन्तु देवायु बांधकर देदों में उत्पन्न होता है / [प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है कि""यावत्-देवायु बांधकर देवों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! एकान्तपण्डित मनुष्य की केवल दो गतियाँ कही गई हैं / वे इस प्रकार हैंअन्तक्रिया और कल्पोपपत्तिका (सौधर्मादि कल्पों में उत्पन्न होना)। इस कारण हे गौतम! एकान्तपण्डित मनुष्य देवायु बांध कर देवों में उत्पन्न होता है / 3. बालपंडिते गं भंते ! मणुस्से कि नेरइयाउय पकरेति जाव देवाउय किच्चा देवेसु उववज्जति ? गोतमा ! नो नेर इयाउय पकरेति जाव देवाउय किच्चा देवेसु उबवज्जति / से केणढणं जाव देवाउय किच्चा देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्रारिय धम्मिय सुक्यणं सोचा निसम्म देसं उवरमति, देसं नो उवरमइ, देसं पच्चक्वाति, देसं गो पच्चक्खाति; से णं तेणं देसोबरम-देसपच्चक्खाणेणं नो नेरयाउय पकरेति जाव देवाउय किच्चा देवेसु उवधज्जति / से तेण?णं जाव देवेसु उववज्जइ। [3 प्र.] भगवन् ! क्या बालपण्डित मनुष्य नरकायु बांधता है, यावत्-देवायु बांधता है ? और यावत्-देवायु बांधकर देवलोक में उत्पन्न होता है ? [3 उ.] गौतम ! वह नरकायु नहीं बांधता और यावत् (तिर्यञ्चायु तथा मनुष्यायु नहीं बांधता), देवायु बांधकर देवों में उत्पन्न होता है / _[प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है कि बालपण्डित मनुष्य यावत् देवायु बांध कर देवों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! बालपण्डित मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन के पास से एक भी आर्य तथा धामिक सुवचन सुनकर, अवधारण करके एकदेश से विरत होता है, और एकदेश से विरत नहीं होता / एकदेश से प्रत्याख्यान करता है और एकदेश से प्रत्याख्यान नहीं करता / इसलिए हे गौतम ! देश-विरति और देश-प्रत्याख्यान के कारण वह नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का बन्ध नहीं करता और यावत्-देवायु बांधकर देवों में उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन किया गया है। विवेचन-बाल, पण्डित आदि के श्रायुबन्ध का विचार प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रमश: एकान्तबाल, एकान्तपण्डित और बाल-पण्डित मनुष्य के आयुष्यबन्ध का विचार किया गया है। बाल प्रादि के लक्षण -मिथ्यादृष्टि और अविरत को एकान्तबाल कहते हैं / बस्ततत्त्व के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org