________________ प्रथम शतक : उद्देशक-७ ] [ 131 विवेचन--गर्भगत जीव सम्बन्धी विचार-प्रस्तुत 13 सूत्रों (सू. 10 से 22 तक) में विविध पहलुओं से गर्भगत जीव से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर अंकित किये गए हैं :-- द्रव्येन्द्रिय-मावेन्द्रिय-इन्द्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय / पोद्गलिक रचनाविशेष को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं / इसके दो प्रकार हैं—नित्ति और उपकरण / इन्द्रियों की प्राकृति को निवृत्ति कहते हैं, और उनके सहायक को उपकरण कहते हैं / भावेन्द्रिय के भी दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग / लब्धि का अर्थ शक्ति है, जिसके द्वारा आत्मा शब्दादि का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है। उपयोग का अर्थ है ग्रहण करने का व्यापार। जीव जब गर्भ में आता है, तब उसमें शक्तिरूप भावेन्द्रियाँ यथायोग्य साथ ही होती हैं। गर्भगत जीव के माहारादि-गर्भमें पहुँचने के प्रथम समय में माता के ऋतु-सम्बन्धी रज और पिता के वीर्य के सम्मिश्रण को ग्रहण करता है / तत्पश्चात् माता द्वारा ग्रहण किये हुए रसविकारों का एक भाग प्रोज के साथ ग्रहण करता है। गर्भस्थ जीव के मल-मूत्रादि नहीं होते, क्योंकि वह जो भी पाहार ग्रहण करता है उसे श्रोत्रेन्द्रियादि रूप में परिणमाता है / वह कवलाहार नहीं करता, सर्वात्मरूप से प्राहार ग्रहण करता है / रसहरणी नाडी (नाभिका नाल) द्वारा गर्भगत जीव माता के जोब का रस ग्रहण करता है। यह नाडी माता के जीव के साथ प्रतिबद्ध और सन्तान के जीव के साथ स्पष्ट होती है। दूसरी पुत्रजीवरसहरणो द्वारा गर्भस्थ जीव आहार का चय-उपचय करता है। इससे गर्भस्थ जीव परिपुष्टि प्राप्त करता है। यह नाड़ी सन्तान के जीव के साथ प्रतिबद्ध और माता के जीव के साथ स्पृष्ट होती है। गर्भगत जीव के अंगादि-जिन अंगों में माता के आर्तव का भाग अधिक होता है / बे कोमल अंग-मांस, रक्त और मस्तक का भेजा (अवथा मस्तुलग-चर्बी या फेफड़ा) माता के होते हैं, तथा जिन अंगों में पिता के वीर्य का भाग अधिक होता है, वे तीन कठोर अंग-केश, रोम तथा नखादि पिता के होते हैं। शेष सब अंग माता और पिता दोनों के पुद्गलों से बने हुए होते हैं / सन्तान के भवधारणीय शरीर का अन्त होने तक माता-पिता के ये अंग उस शरीर में रहते हैं। गर्भगत जोव के नरक या देवलोक में जाने का कारण धन, राज्य और कामभोग को तीव. लिप्सा और शत्रुसेना को मारने की तीव्र आकांक्षा के वश मृत्यु हो जाय तो गर्भस्थ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव नरक में जाता है और धर्म, पुण्य, स्वर्ग एवं मोक्ष के तीन शुभ अध्यवसाय में मृत्यु होने पर वह देवलोक में जाता है। गर्भस्थ जीव स्थिति-गर्भस्थ जीव ऊपर की ओर मुख किये चित सोता, करवट से सोता है, या आम्रफल की तरह टेढ़ा हो कर रहता है / उसकी खड़े या बैठे रहने या सोने आदि की क्रिया माता को क्रिया पर आधारित है / बालक का भविष्य : पूर्वजन्मकृत कर्म पर निर्भर-पूर्वभव में शुभ कर्म उपाजित किया हुआ जीव यहाँ शुभवर्णादि वाला होता है, किन्तु पूर्वजन्म में अशुभ कर्म उपाजित किया हुमा जीव यहाँ अशुभवर्ण कुरस आदि वाला होता है।' // प्रथम शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 86 से 90 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org