________________ 130] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून धर्मपिपासु, पुण्य पिपासु, स्वर्गपिपासु एवं मोक्षपिपासु, उसी में चित्त वाला, उसी में मन वाला, उसी में आत्मपरिणाम वाला, उसी में अध्यवसित, उसी में तीव्र प्रयत्नशील, उसी में सावधानतायुक्त, उसी के लिए अपित होकर क्रिया करने वाला, उसी की भावनाओं से भावित (उसी के संस्कारों से संस्कारित) जीव ऐसे ही अन्तर (समय) में मृत्यु को प्राप्त हो तो देवलोक में उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! कोई जीव देवलोक में उत्पन्न होता है और कोई नहीं उत्पन्न होता। 21, जीवे णं भंते ! गम्भगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंबखुज्जए वा अच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा निसीएज्ज वा तुयट्टज वा, मातुए सुवमाणोए सुवति, जागरमाणीए जागरति, सुहियाए सुहिते भवइ, दुहिताए दुहिए भवति ? हंता, गोयमा ! जोवे गं गम्भगए समाणे जाव दुहियाए भवति / [21 प्र.] भगवन् ! गर्भ में रहा हुआ जीव क्या चित-लेटा हुया (उत्तानक) होता है, या करवट वाला होता है, अथवा प्राम के समान कुबड़ा होता है, या खड़ा होता है, बैठा होता है या पड़ा हुया (सोता हुआ) होता है; तथा माता जब सो रही हो तो सोया होता है, माता जब जागती हो तो जागता है, माता के सुखी होने पर सुखी होता है, एवं माता के दुःखी होने पर दुःखी होता है ? [21 उ.] हाँ, गौतम ! गर्भ में रहा हुअा जोब..'यावत्-जब माता दुःखित हो तो दुःखी होता है। 22. अहे णं पसवणकालसमयंसि सीसेण वा पाएहि वा आगच्छति सममागच्छइ तिरियमागच्छइ विणिहायमावज्जति / वणवझाणि य से कम्माई बद्धाइं पुट्टाई निहत्ताई कडाई पट्टविताई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई उदिण्णाई, नो उवसंताई भवंति; तनो भवइ दुस्खे दुवष्णे दुग्गंधे दूर से दुप्फासे प्रणि प्रकंते अप्पिए प्रसुभे अमणण्णे प्रमणामे होणस्सरे दोणस्सरे अणिट्रस्सरे प्रकंतस्सरे अप्पियस्सरे असुमस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे प्रणादेजवयणे पच्चायाए याऽवि भवति / वण्णवझाणि य से कम्माइं नो बधाई० पसत्थं नेतन्वं जाव प्रादेज्जवयणे पच्चायाए याऽवि भवति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // सत्तमो उदेसो समत्तो। 22) इसके पश्चात् प्रसवकाल में अगर वह गर्भगत जीव मस्तक द्वारा या पैरों द्वारा (गर्भ से) बाहर आए तब तो ठीक तरह आता है, यदि वह टेढ़ा (आड़ा) हो कर आए तो मर जाता है। गर्भ से निकलने के पश्चात् उस जीव के कर्म यदि अशुभरूप में बंधे हों, स्पृष्ट हों, निधत्त हों, कृत हों, प्रस्थापित हों, अभिनिविष्ट हों' अभिसमन्वागत हों, उदीर्ग हों, और उपशान्त न हों, तो वह जीव कुरूप, कुवर्ण (खराब वर्ण वाला) दुर्गन्ध वाला, कुरस वाला, कुस्पर्श बाला, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम (जिसका स्मरण भी बुरा लगे), हीन स्वर बाला, दीन स्वर वाला, अनिष्ट अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ एवं अमनाम स्वर वाला; तथा अनादेय वचन वाला होता है, और यदि उस जीव के कर्म अशुभरूप में न बँधे हुए हों तो, उसके उपर्युक्त सब बातें प्रशस्त होती हैं, ......... यावत्--वह प्रादेयवचन वाला होता है / ' 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है / ' यों कह कर श्री गौतमस्वामी तप-संयम में विचरण करने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org