________________ 80 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लिंगान्तर-लिंग = वेष के विषय में शंका उत्पन्न होना कि बीच के 22 तीर्थंकरों के साधुओं के लिए तो वस्त्र के रंग ओर परिमाण का कोई नियम नहीं है, फिर प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के साधुओं के लिए श्वेत एवं प्रमाणोपेत वस्त्र रखने का नियम क्यों ? इस प्रकार की वेश (लिंग) सम्बन्धी शंका से कांक्षामोहकर्म वेदन होता है। प्रवचनान्तर-प्रवचनविषयक शंका, जैसे-प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों ने पांच महाव्रतों का और बीच के 22 तीर्थंकरों ने चार महावतों का प्रतिपादन किया, तीर्थंकरों में यह प्रवचन (वचन) भेद क्यों ? इस प्रकार की शंका होना भी कांक्षामोहकर्मवेदन का कारण है। प्रावनिकान्तर-प्रावनिक का अर्थ है--प्रवचनों का ज्ञाता या अध्येता; बहुश्रुत साधक / दो प्रावचनिकों के प्राचरण में भेद देखकर शंका उत्पन्न होना भी कांक्षामोहवेदन का कार कल्पान्तर-जिनकल्प, स्थविरकल्प आदि कल्पों के मुनियों का प्राचार-भेद देखकर शंका करना कि यदि जिनकल्प कर्मक्षय का कारण हो तो स्थविरकल्प का उपदेश क्यों ? यह भी कांक्षामोहवेदन का कारण है। मार्गान्तर-मार्ग का अर्थ है--परम्परागत समाचारी पद्धति / भिन्न समाचारी देखकर शंका करना कि यह ठीक है या वह ? ऐसी शंका भी कांक्षा मोह वेदन का कारण है / मतान्तर–भिन्न-भिन्न प्राचार्यों के विभिन्न मतों को देखकर शंका करना / भंगान्तर--द्रव्यादि संयोग से होने वाले भंगों को देखकर शंका उत्पन्न होना / नयान्तर--एक ही वस्तु में विभिन्न नयों को अपेक्षा से दो विरुद्ध धर्मों का कथन देखकर शंका होना। नियमान्तर-साधुजीवन में सर्वसावद्य का प्रत्याख्यान होता ही है, फिर विभिन्न नियम क्यों ; इस प्रकार शंकाग्रस्त होना। प्रमाणान्तर-----आगमप्रमाण के विषय में शंका होना। जैसे—सूर्य पृथ्वी में से निकलता दीखता है परन्तु आगम में कहा है कि पृथ्वी से 800 योजन ऊपर संचार करता है, प्रादि / ' / / प्रथम शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 60 से 62 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org