________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] अवगाहना वाले और उसके योग्य उत्कृष्ट अवगाहना वाले, इन दोनों प्रकार के नारकों में सत्ताईस भंग कहने चाहिए। विवेचन-नरयिकों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक द्वितीय अवगाहनास्थान द्वार--प्रस्तुत दो सूत्रों में नारकों के अवगाहनास्थान तथा क्रोधादियुक्तता का विचार किया गया है / अवगाहनास्थान-जिसमें जीव ठहरता है, अवगाहन करके रहता है, वह अवगाहना है / अर्थात-जिस जीव का जितना लम्बा चौड़ा शरोर होता है, वह उसकी अवगाहना है। जिस क्षेत्र में जो जीव जितने प्रकाश प्रदेशों को रोक कर रहता है, उतने आधारभूत परिमाण क्षेत्र को भी अवगाहना कहते हैं। उस अवगाहना के जो स्थान-प्रदेशों की वृद्धि से विभाग हों, वे अवगाहनास्थान होते हैं / उत्कृष्ट अवगाहना-प्रथम नरक की उत्कृष्ट अवगाहना 7 धनुष, 3 हाथ, 6 अंगुल होती है, इससे आगे के नरकों में अवगाहना दुगुनी-दुगुनी होती है / अर्थात् शर्करा प्रभा में 15 धनुष, 2 हाथ, 12 अंगुल को; बालुकाप्रभा में 31 धनुष, 1 हाथ की; पंकप्रभा में 62 धनुष, 2 हाथ की, धूमप्रभा में 125 धनुष को ; तमःप्रभा में 250 धनुष की; तमस्तमःप्रभा में 500 धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना होती है। जघन्यस्थिति तथा जघन्य अवगाहना के भंगों में अन्तर क्यों ?-जधन्यस्थितिवाले नारक जब तक जघन्य अवगाहना वाले रहते हैं, तब तक उनकी अवगाहना के 80 भंग ही होते हैं; क्योंकि जघन्य अवगाहना उत्पत्ति के समय ही होती है। जधन्यस्थिति वाले जिन नैरयिकों के 27 भंग कहे हैं, वे जघन्य अवगाहना को उल्लंघन कर चुके हैं, उनकी अवगाहना जघन्य नहीं होती। इसलिए उनमें 27 ही भंग होते हैं। जघन्य अवगाहना से लेकर संख्यातप्रदेश की अधिक अवगाहना वाले जीव नरक में सदा नहीं मिलते, इसलिए उनमें 80 भंग कहे गए हैं, किन्तु जघन्य अवगाहना से असंख्यातप्रदेश अधिक की अवगाहना वाले जीव, नरक में अधिक ही पाये जाते हैं, इसलिए उनमें 27 भंग होते हैं।' ततीय-शरीरद्वार----- 12. इमोसे गं भंते ! रयण जाव एगमेगसि निरयावासंसि नेरतियाणं कति सरीरया पण्णता? गोयमा ! तिणि सरीरया पण्णत्ता / तं जहा–देउविए तेयए कम्मए / [12 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में बसने वाले नारक जीवों के शरीर कितने हैं ? [12 उ.] गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org