________________ प्रथम शतक : उद्देशक-७] [ 125 विग्रहगति-प्रविग्रहगति की व्याख्या सामान्यतया विग्रह का अर्थ होता है-वक्र या मुड़ना, मोड़ खाना / जीव जब एक गति का प्रायुष्य समाप्त होने पर शरीर छोड़ कर दूसरा नया शरीर धारण करने हेतु दूसरी गति में जाते समय मार्ग (वाट) में गमन करता (बहता) है, तब उसकी गति दो प्रकार की हो सकती है—विग्रहगति और अविग्रहगति / कोई-कोई जीव जब एक, दो या तीन बार टेढ़ा-मेढ़ा मुड़कर उत्पत्तिस्थान पर पहुँचता है, तब उसकी वह गति विग्रहगति कहलाती है और जब कोई जोव मार्ग में बिना मुड़े (मोड़ खाए सीधा अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँच जाता है तब उसकी उस गति को अविग्रहगति कहते हैं / यहाँ अविग्रहगति का अर्थ ऋजु-सरल गति नहीं लिया गया है, किन्तु विग्रहगति का प्रभाव' अर्थ ही यहाँ संगत माना गया है। इस दा से प्रविग्रहगतिसमापन्न' का अर्थ होता है--विग्रहमति को अप्राप्त (नहीं पाया हुआ), चाहे जैसी स्थिति वालागतिवाला या गतिरहित जीव / अर्थात्-जो जीव किसी भी गति में स्थित (ठहरा हुआ) है, उस अवस्था को प्राप्त जीव अविग्रहगतिसमापन्न है, और दूसरी गति में जाते समय जो जीव मार्ग में गति करता है, उस अवस्था को प्राप्त जीव विग्रहगतिसमापन्न है। इस व्याख्या के अनुसार अविग्रहगतिसमापन्न में ऋजुगति वाले तथा भवस्थित सभी जीवों का समावेश हो जाता है; तथा नारकों में जो अविग्रहगतिसमापन्न वालों की बहुलता बताई है, वह कथन भी संगत हो जाता है, मगर अविग्रहमति का अर्थ केवल ऋजुगति करने से यह कथन नहीं होता। बहुत जीवों की अपेक्षा से-जीव अनन्त हैं। इसलिए प्रतिसमय बहुत से जीव विग्रहगति समापन्न भी होते हैं, और विग्रहगति के अभाव वाले भी होते हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में अविग्रहगति समापन्न कहा गया है। इस दृष्टि से एकेन्द्रिय जीव बहुत होने से उनमें सदैव बहुत से विग्रहगति वाले भी पाए जाते हैं और बहुत से विग्रहगति के अभाव वाले भी।' देव का च्यवनानन्तर आयुष्य प्रतिसंवेदन-निर्णय 6. देवे णं भंते ! महिडिए महज्जुतीए महब्बले महायसे महेसक्खे' महाणुभावे अविउक्कंतियं चयमाणे किंचि वि कालं हिरिवत्तियं दुगुलावत्तिय परिस्सहवत्तियं प्राहारं नो पाहारेति; अहे गं प्राहारेति, श्राहारिज्जमाणे ग्राहरिए, परिणामिज्जमाणे परिणामिए, पहोणे य पाउए भवइ, जत्थ उववज्जति तमाउयं पडिसंवेदेति, तं जहा—तिरिक्खजोणियाउयं वा मणुस्साउयं वा ? हंता, गोयमा ! देवे णं महिड्डीए जाव मणुस्साउगं वा। [9 प्र.] भगवन् ! महान् ऋद्धि वाला, महान् छ ति वाला, महान् बल वाला, महायशस्वी, महाप्रभावशाली, (महासामर्थ्य सम्पन्न) मरण काल में च्यवने वाला, महेश नामक देव (अथवा महाप्रभुत्वसम्पन्न या महासौख्यवात् देव) लज्जा के कारण, घृणा के कारण, परोषह के कारण कुछ समय तक आहार नहीं करता, फिर याहार करता है और ग्रहण किया हुआ आहार परिणत भी होता है / अन्त में उस देव की वहाँ की आयु सर्वथा नष्ट हो जाती है। इसलिए वह देव जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ की आयु भोगता है; तो हे भगवन् ! उसकी वह आयु तिर्यञ्च की समझी जाए या मनुष्य की आयु समझी जाए? 1. (क) 'विग्रहो वक्र तत्प्रधाना गतिविग्रहगतिः ।..'"अविग्रहगतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिक :, स्थितो वा। (ख) भगवतीसूत्र अ. टीका, पत्रांक 85-86. 2. महासोक्खे (पाठान्तर). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org