________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५] [105 'लोभ' शब्द को बहुवचनान्त ही रखना चाहिए। यथा-प्रसंयोगी एक भंग-१ सभी लोभी, द्विकसंयोगी 6 भाग-१ लोभी बहुत, मायो एक; 2 लोभी बहुत, मायो बहुत; 3 लोभी बहुत, मानी एक; 4 लोभी बहुत, मानी बहुत; 5 लोभी बहुत, क्रोधी एक और 6 लोभी बहुत, क्रोधी बहुत / त्रिकसंयोगी 12 भंग-१. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक; 2. लोभी बहुत, मायी एक मानी बहुत; 3. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक; 4. लोभी बहुत, मायो बहुत, मानी बहुत; 5. लोभो बहुत, मायी एक, क्रोधी एक, 6. लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक; 7. लोभी बहुत, मायो एक, क्रोधी एक, 8. लोभी बहुत, मायी बहुत, क्रोधी बहुत; 9. लोभी बहुत, मानी एक, कोधी एक, 10 लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत; 11. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी एक और 12. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी बहुत / / चतुःसंयोगी 8 भंग-१. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, क्रोधी एक ; 2. लोभी बहुत ; मायी एक, मानी एक, क्रोधी बहुत; 3. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी एक, 4. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी बहुत; 5. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधो एक; 6. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत, 7. लोभो बहुत, मायो बहुत, मानी एक, क्रोधी एक और 8. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी बहुत / / अन्य द्वारों में अन्तर-असुरकुमारादि संहननरहित हैं, किन्तु उनके शरीरसंघातरूप से जो पुद्गल परिणमते हैं, वे इष्ट और सुन्दर होते हैं। उनके भवधारणीय शरीर का संस्थान समचतुरस्र होता है; उत्तरवैक्रिय शरीर किसी एक संस्थान में परिणत होता है। तथा असुरकुमारादि में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या होती हैं। पृथ्वीकायादि के दश द्वार और क्रोधादियुक्त के भंग-इनके स्थितिस्थान आदि दशों ही द्वारों में अभंगक समझना चाहिए। केवल पृथ्वीकायसम्बन्धी लेश्याद्वार में तेजोलेश्या की अपेक्षा 80 भंग होते हैं। एक या अनेक देव देवलोक से च्यवकर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं तब तेजोलेश्या होती है। उनके एकत्वादि के कारण 80 भंग होते हैं। पृथ्वी कायिक में 3 शरीर-(प्रौदारिक, तेजस्, कार्मण), शरीरसंघातरूप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ दोनों प्रकार के पुद्गल परिणमते हैं। इनमें भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रियशरीर भेद नहीं होते / क्रमश: चार लेश्याएं होती हैं / ये हुण्डक संस्थानी, एकान्त मिथ्याष्टि, अज्ञानी (मति-श्रुताज्ञान), केवल काययोगी होते हैं। इसी तरह प्राप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दश ही द्वार समझने चाहिए। तेजस्काय और वायुकाय में देव उत्पन्न नहीं होते, इसलिए तेजोलेश्या और तत्सम्बन्धी 80 भंग नहीं होते / वायुकाय के 4 शरीर (आहारक को छोड़कर) होते हैं / विकलेन्द्रिय जीवों से नारकों में अन्तर—चूकि विकलेन्द्रिय जीव अल्प होते हैं, इसलिए उनमें एक-एक जीव भी कदाचित् क्रोधादि-उपयुक्त हो सकता है, विकलेन्द्रियों में मिश्रदृष्टि नहीं होती, प्राभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान (अपर्याप्त दशा में) होने से इनमें भी 80 भंग होते हैं। नारकों में जिन-जिन स्थानों में 27 भंगा बतलाए गए हैं, उन-उन स्थानों में विकलेन्द्रिय में अभंगक (भंगों का प्रभाव) कहना चाहिए। इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। ये (विकलेन्द्रिय) सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा ज्ञानी और अज्ञानी, तथा काययोगी और वचनयोगी होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org