________________ 118 ] / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लोकस्थिति का प्रश्न और उसका यथाथ समाधान-कई मतावलम्बी पृथ्वो को शेषनाग पर, शेषनाग कच्छप पर अथवा शेषनाग के फन पर टिकी हुई मानते हैं। कोई पृथ्वी को गाय के सींग पर टिकी हुई मानते हैं, कई दार्शनिक पृथ्वी को सत्य पर आधारित मानते हैं; इन सब मान्यताओं से लोकस्थिति का प्रश्न हल नहीं होता; इसीलिए श्री गौतम स्वामी ने यह प्रश्न उठाया है। भगवान् ने प्रत्यक्ष सिद्ध समाधान दिया है कि सर्वप्रथम आकाश स्वप्रतिष्ठित है। उस पर तनुवात (पतली हवा) फिर घनवात (मोटी हवा), उस पर घनोदधि (जमा हुआ मोटा पानी)और उस पर यह पृथ्वी टिकी हुई है / पृथ्वी के टिकने की तथा पृथ्वी पर उस-स्थावर जीवों के रहने की बात प्रायिक एवं आपेक्षिक है। इस पृथ्वी के अतिरिक्त और भी मेरुपर्वत, आकाश, द्वीप, सागर, देवलोक, नरकादि क्षेत्र हैं, जहाँ जीव रहते हैं। कर्मों के प्राधार पर जीव-निश्चयनय की दृष्टि से जीव अपने ही आधार पर टिके हुए हैं, किन्तु व्यवहारदष्टि से सकर्मक जीवों की अपेक्षा से यह कथन किया गया है। जीव कर्मों से यानी नारकादि भावों से प्रतिष्ठित अवस्थित हैं।" जोव और पुदगलों का सम्बन्ध 26. [1] अस्थि णं भंते ! जीवा य पोग्गला य अन्नमनबद्धा अन्नमनपुट्टा अन्नमनमोगाढा अन्नमनसिणेहपडिबद्धा अन्नमनघडताए चिट्ठति ? हंता, अस्थि। [26-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं ?, परस्पर एक दूसरे से स्पृष्ट हैं ? , परस्पर गाढ़ सम्बद्ध (मिले हुए) हैं, परस्पर स्निग्धता (चिकनाई) से प्रतिबद्ध (जुड़े हुए) हैं, (अथवा) परस्पर घट्टित (गाढ़) हो कर रहे हुए हैं ? |26-1 उ.] हाँ, गौतम ! ये परस्पर इसी प्रकार रह हुए हैं / [2] से केण?णं भंते ! जाव चिट्ठति ? गोयमा! से जहानामए हरदे सिया पुग्णे पुण्णप्पमाणे बोलट्टमाणे बोसट्टमाणे समभरघडताए चिति, आहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एग महं नावं सदासवं सतछिड्ड प्रोगाहेज्जा / से नणं गोतमा ! सा णावा तेहिं प्रासवद्दारेहिं आपूरमाणो प्रापूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा बोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडताए चिति ? हंता, चिट्ठति / से तेणढणं गोयमा ! अस्थि णं जीवा य जाव चिट्ठति / [26-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि-यावत् जीव और पुद्गल इस प्रकार रहे हुए हैं ? [26-2 उ.] गौतम ! जैसे--कोई एक तालाव हो, वह जल से पूर्ण हो, पानी से लबालब भरा हुअा हो, पानी से छलक रहा हो और पानी से बढ़ रहा हो, वह पानी से भरे हुए घड़े के समान है। उस तालाब में कोई पुरुष एक ऐसी बड़ी नौका, जिसमें सौ छोटे छिद्र हों (अथवा सदा छेद 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 81-82 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org