________________ [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र 13. [1] इमोसे णं भंते ! जाव वेउब्वियसरोरे वट्टमाणा नेरतिया कि कोहोक्उत्ता.? सत्तावीसं भंगा। [2] एतेणं गमेणं तिण्णि सरीरा भाणियन्वा / [13-1 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से प्रत्येक नारकावास में बसने वाले वैक्रियशरीरी नारक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, (मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं अथवा लोभोपयुक्त हैं ?) [13-1 उ.] गौतम ! उनके क्रोधोपयुक्त प्रादि 27 भंग कहने चाहिए। [13-2] और इस प्रकार शेष दोनों शरीरों (तैजस और कार्मण) सहित तीनों के सम्बन्ध में यही बात (पालापक) कहनी चाहिए / विवेचन–नारकों के क्रोधोपयुक्तादिनिरूपणपूर्वक तृतीय शरीरद्वार-प्रस्तुत द्विसूत्री में नारकीय जीवों के तीन शरीर और उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंगों का निरूपण है। शरीर-शरीर नामकर्म के उदय से होने वाली वह रचना जिसमें प्रात्मा व्याप्त होकर रहती है, अथवा जिसका क्षण-क्षण नाश होता रहता है, उसे शरीर कहते हैं। वैनियशरीर-जिस शरीर के प्रभाव से एक से अनेक शरीर, छोटा शरीर, बड़ा शरीर या मनचाहा रूप धारण किया जा सकता है, उसे वैक्रियशरोर कहते हैं। इसके दो भेद हैं-- भवधारणोय और उत्तरवैक्रिय / नारकों के भवधारणीय वैक्रिय शरीर होता है / तंजसशरीर-आहार को पचाकर खलभाग और रसभाग में विभक्त करने और रस को शरीर के अंगों में यथास्थान पहुँचाने वाला शरीर तेजस कहलाता है। काणर्मशरीर--रागद्वेषादि भावों से शुभाशुभ कर्मवर्गणा के पुद्गलों को संचित करने वाला कार्मण शरोर है।' चौथा-संहननद्वार 14. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवोए जाव नेरइयाणं सरीरगा कि संघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छहं संघयणाणं असंघयणो, नेवट्ठी, नेव छिरा, नेव हारूणि / जे पोग्गला प्रणिट्ठा अकंता अप्पिया असुमा प्रमणुष्णा अमणामा ते तेसिं सरीरसंघातत्ताए परिणति / 14 प्र.। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तोस लाख नारकावासों में से प्रत्येक नारकावास में बसने वाले नै रयिकों के शरीरों का कौन-सा संहनन है ? {14 उ.] गौतम ! उनका शरीर संहननरहित है, अर्थात् उनमें छह संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता। उनके शरीर में हड्डो, शिरा (नस) और स्नायु नहीं होती। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोश और अमनोहर हैं, वे पुद्गल नारकों के शरीर-संघातरूप में परिणत होते हैं। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org