________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] [99 [21-1 उ.] गौतम ! इनके क्रोधोपयुक्त ग्रादि सत्ताईस भंग कहने चाहिए। [21-2] इसी प्रकार मिथ्या दृष्टि के भी क्रोधोपयुक्त प्रादि 27 भंग कहने चाहिए। [21-3] सम्यमिथ्यादृष्टि के अस्सी भंग (पूर्ववत्) कहने चाहिए / आठवाँ-ज्ञानद्वार--- 22. इमीसे णं भंते ! जाव कि णाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! गाणी वि, अण्णाणी वि / तिणि नाणाणि नियमा, तिणि अण्णाणाई भयणाए / [22 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले नारक जीब क्या ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? [22 उ.] गौतम ! उनमें ज्ञानी भी हैं, और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, उनमें नियमपूर्वक तीन ज्ञान होते हैं, और जो अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं / 23. [1] इमोसे णं भंते ! जाव आभिणिबोहियणाणे वट्टमाणा० ? सत्तावीसं भंगा। [2] एवं तिणि णाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई भाणियब्वाई। [23-1 प्र.] भगवन ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले ग्राभिनिवोधिक ज्ञानी (मतिज्ञानी) नारकी जीव क्या क्रोधोपयुक्त यावत् लोभोपयुक्त होते हैं ? 23-1 उ.] गौतम ! उत आभिनिबोधिक ज्ञानवाले नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंग कहने चाहिए। [23-21 इसी प्रकार तीनों ज्ञान वाले तथा तीनों प्रज्ञान वाले नारकों में क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंग कहने चाहिए / विवेचन-नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक सातवाँ-पाठवाँ दृष्टि-ज्ञानद्वार-प्रस्तुत चार सूत्रों में नारकों में तीनों दृष्टियों तथा तीन ज्ञान एवं तीन अज्ञान की प्ररूपणा करके उनमें क्रोधोपयुक्तादि भंगों का प्रतिपादन किया गया है / दृष्टि—जिनको दृष्टि (दर्शन) में समभाव है, सम्यक्त्व है, वे सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं / वस्तु के वास्तविक स्वरूप को समझना सम्यग्दर्शन है, और विपरीतस्वरूप समझना मिथ्यादर्शन है। विपरीत बुद्धि दृष्टि वाला प्राणी मिथ्यादृष्टि होता है। जो न पूरी तरह मिथ्यादृष्टि वाला है और न सम्यग्दृष्टि बाला है, वह सम्यमिथ्यादृष्टि-मिश्रदृष्टि कहलाता है। तीनों दष्टियों वाले नारकों में क्रोधोपयुक्तादि भंग-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में पूर्ववत् 27 भंग होते हैं, किन्तु मिश्रदृष्टि में 80 भंग होते हैं, क्योंकि मिश्रदृष्टि जीव अल्प हैं, उनका सद्भाव काल की अपेक्षा से भी अल्प है / अर्थात्-वे कभी नरक में पाये जाते हैं, कभी नहीं भी पाये जाते। इसी कारण मिश्रदृष्टि नारक में क्रोधादि के 80 भंग पाये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org