________________ 102] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [28] रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में दस द्वारों का वर्णन किया है, उसी प्रकार से सातों पृथ्वियों (नरक भूमियों) के विषय में जान लेना चाहिए। किन्तु लेश्याओं में विशेषता है / वह इस प्रकार है गाथार्थ-पहली और दूसरी नरकपृथ्वी में कापोतलेश्या है, तीसरी नरकपृथ्वी में मिश्र अर्थान--कापोत और नील, ये दो लेश्याएं हैं, चौथी में नील लेश्या है, पाँचवीं में मिश्र अर्थातनील और कृष्ण, ये दो लेश्याएं हैं, छठी में कृष्ण लेश्या और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या होती है। विवेचन-लेश्या के सिवाय सातों नरकवियों में शेष नौ द्वारों में समानता प्रस्तुत सुत्र में सातों नरकवियों में लेश्या के अतिरिक्त शेष नौ द्वारों का तथा उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि भंगों का वर्णन रत्नप्रभापृथ्वो के वर्णन के समान है / भवनपतियों को क्रोधोपयुक्तादि वक्तव्यतापूर्वक स्थिति प्रादि दस द्वार - 26. च उसट्ठोए णं भंते ! असुरकुमारावाससतसहस्सेसु एगमेसि असुरकुमारावाससि असुरकुमाराणं केवतिया ठिइठाणा पण्णता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठितिठाणा पण्णत्ता / तं जहा-जहनिया ठिई जहा नेरतिया तहा, नवरं पडिलोमा भंगा भाणियव्या-सव्वे वि ताव होज्ज लोभोवयुत्ता, अहवा लोभोवयुत्ता य मायोक्उत्ते य, अहबा लोभोवयुत्ता य मायोवयुत्ता य / एतेणं गमेणं नेतन्वं जाव थणियकुमारा, नवरं जाणत्तं जाणितन्वं / [29 प्र.] भगवन् ! चौसठ लाख असुरकुमारावासों में के एक-एक असुरकुमारावास में रहने वाले असुरकुमारों के कितने स्थिति-स्थान कहे गए हैं ? [29 उ.] गौतम ! उनके स्थिति-स्थान असंख्यात कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं---जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि सब वर्णन नैरपिकों के समान जानना चाहिए / विशेषता यह है कि इनमें जहाँ सत्ताईस भंग पाते हैं, वहां प्रतिलोम (विपरीत) समझना चाहिए। वे इस प्रकार हैं -समस्त असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं, अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है; अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त होते हैं, इत्यादि रूप (गम) से जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए / विशेषता यह है कि संहनन, संस्थान, लेश्या अादि में भिन्नता जाननी चाहिए। एकेन्द्रियों की क्रोधोपयुक्तादि प्ररूपणापूर्वक स्थिति प्रादि द्वार ____30. असंखेज्जेसु णं भंते ! पुढधिकाइयावाससतसहस्सेसु एगमेगसि पुढविकाइयावासंसि पुढबिक्काइयाणं केवतिया ठितिठाणा पण्णता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठितिठाणा पण्णता / तं जहा-जहनिया ठिई जाव तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिती। [30 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक प्रावास में बसने वाले पृथ्वीकायिकों के कितने स्थिति-स्थान कहे गये हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org