________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५] [ 97 15. इमोसे गं भंते ! जाव छहं संघयणाणं असंधयणे वट्टमाणा नेरतिया कि कोहोवउत्ता० ? सत्तावीसं भंगा। [15 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में के प्रत्येक नारकावास में रहने वाले और छह संहननों में से जिनके एक भी संहनन नहीं है. वे नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं अथवा लोभोपयुक्त हैं ? [15. उ.] गौतम ! इनके सत्ताईस भंग कहने चाहिए / पाँचवाँ-संस्थानद्वार 16. इमोसे गं भाते ! रयणप्पभा जाव सरीरया कि संठिता पण्णता ? गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता। तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य / तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हंडसंठिया पण्णत्ता / तत्थ णं उत्तरवेउब्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता / [16 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में के प्रत्येक नारकावास में रहने वाले नैरयिकों के शरीर किस संस्थान वाले हैं ? [16 उ.] गौतम ! उन नारकों का शरीर दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है--भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें जो भवधारणीय शरीर वाले हैं, वे हुण्डक संस्थान बाले होते हैं, और जो शरीर उत्तरवैक्रियरूप हैं, वे भी हुण्डकसंस्थान वाले कहे गए हैं / 17. इमोसे गं जाव हुंडसंठाणे वट्टमाणा नेरतिया कि कोहोवउत्ता० ? सत्तावीसं मंगा। [17 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में यावत् हुण्डकसंस्थान में वर्तमान नारक क्या क्रोधोपयुक्त इत्यादि हैं ? [17 उ.] गौतम ! इनके भी क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंग कहने चाहिए / विवेचन-नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक चतुर्थ एवं पंचम संहनन-संस्थानद्वारप्रस्तुत चार सूत्रों (14 से 17 तक) में नारकों के संहनन एवं संस्थान के सम्बन्ध में प्ररूपण करते हुए उक्त संहननहीन एवं संस्थानयुक्त नारकों के क्रोधोपयुक्तादि भंगों की चर्चा की है। उत्तरक्रिय शरीर-एक नारकी जीव दूसरे जीव को कष्ट देने के लिए जो शरीर बनाता है, वह उत्तरवैक्रिय कहलाता है। उत्तरवैक्रिय शरीर सुन्दर न बनाकर नारक हण्डकसंस्थान वाला क्यों बनाते हैं ? इसका समाधान यह है कि उनमें शक्ति की मन्दता है तथा देश-काल प्रादि की प्रतिकूलता है, इस कारण वे शरीर का आकार सुन्दर बनाना चाहते हुए भी नहीं बना पाते, वह बेढंगा ही बनता है / उनका शरीर संहननरहित होता है, इसलिए उन्हें छेदने पर शरीर के पुद्गल अलग हो जाते हैं और पुन: मिल जाते हैं।' 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्रांक 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org