________________ 64] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उसका हिंसा को त्याज्य मानना पण्डितपन है, किन्तु अाचरण से उसे न छोड़ना बालपन है जो आंशिक रूप से पाप से हट जाता है वह भी बालपण्डित है। उसका वीर्य बालपण्डितवीर्य कहलाता है। उपस्थान क्रिया और अपक्रमण किया-मिथ्यात्वमोहनीय का उदय होने पर जीव के द्वारा उपस्थान क्रिया बालवीर्य द्वारा ही होती है। उपस्थान की विपक्षी क्रिया- अपक्रमरण है / अपक्रमण क्रिया का अर्थ है-उच्चगुणस्थान से नीचे गुणस्थान को प्राप्त करना। अपक्रमण क्रिया भी बालवीर्य द्वारा होती है। इसका तात्पर्य यह है कि जब जीव के मिथ्यात्व का उदय हो, तब वह सम्यक्त्व से, संयम (सर्वविरति) से, या देशविरति (संयम) से वापस मिथ्यादृष्टि बन जाता है। पण्डितवीर्यत्व से वह अपक्रमण नहीं करता, (वापस लौटता नहीं), कदाचित् चारित्रमोहनीय का उदय हो तो सर्वविरति (संयम) से पतित होकर बालपण्डितवीर्य द्वारा देशविरति श्रावक हो जाता है / वाचा चनान्तर के अनुसार प्रस्तुत में 'न तो पण्डितवीर्य द्वारा अपक्रमण होता है, और न ही वालपण्डितवीर्य द्वारा'; क्योंकि जहाँ मिथ्यात्व' का उदय हो, वहाँ केवल बालवीर्य द्वारा ही अपक्रममा होता है। निए यह है कि मिथ्यात्व मोहकर्मवश जीव अपने ही पुरुषार्थ से गिरता है। मोहनीय की उदीर्ण अवस्था से उपशान्त अवस्था बिलकुल विपरीत है। इसके होने पर जीव पण्डितवीर्य द्वारा उपस्थान करता है ! वाचनान्तर के अनुसार वृद्ध आचार्य कहते हैं-'मोह का उपशम होने पर जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होता. साधु या धावक होता है। उपशान्तमोहवाला जीव जब अपक्रमण करता है, तब बालपण्डितवीर्यता में आता है, बालवीर्यता में नहीं, क्योंकि मोहनीय कर्म उपशान्त होता है, तब जीव बालपण्डितवीर्यता द्वारा संयत अवस्था से पीछे हटकर देशसंयत हो जाता है, परन्तु मिथ्यादृष्टि नहीं होता। यह अपक्रमण भी स्वयं (आत्मा) द्वारा होता है, दूसरे के द्वारा नहीं। मोहनीय कर्म वेदते हुए भी अपकमण क्यों ? इस प्रश्न के उत्तर का आशय यह है कि क्रमण होने से पूर्व यह जीव, जीवादि नौ तत्त्वों पर श्रद्धा रखता था, धर्म का मूल-अहिंसा मानता था, 'जिनेन्द्र प्रभु ने जैसा कहा है, वही सत्य है' इस प्रकार धर्म के प्रति पहले उसे रुचि थी, लेकिन अब मिथ्यात्वमोहनीय के बेदनवश श्रद्धा विपरीत हो जाने से अर्हन्त प्ररूपित धर्म तथा पहले रुचिकर लगने वाली बातें अब रुचिकर नहीं लगती। तब सम्यग्दृष्टि था, अब मिथ्यादष्टि है। सारांश यह है कि मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का बन्ध, धर्म आदि पर अरुचि-अश्रद्धा रखने से होता है।' कृतकर्म भोगे बिना मोक्ष नहीं 6. से नणं भते ! नेरइयस्स वा, तिरिक्वजोणियस्स वा, मणसस्स वा, देवस्स वा जे कडे पाये कम्मे, नस्थि णं तस्ल प्रवेदइत्ता मोक्खो ? हंता, गोतमा ! नेरहयस्स वा, तिरिवखजोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा जे कड़े पाव कम्मे, नस्थि णं तम्स अवेदइत्ता मोक्खो। से केपट्ठणं भते ! एवं वुच्चति नेरइयस्त वा जाव मोक्खो ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 63, 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org