________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] [91 4. केवतिया णं भंते ! पुढविक्काइयावाससतसहस्सा पण्णता? गोयमा ! असंखेज्जा पुढविक्काइयावाससयसहस्सा पण्णत्ता जाव असंखिज्जा जोदिसियविमाणावाससयसहस्सा पणत्ता / [4. प्र.] भगवन् ! पृथ्विीकायिक जीवों के कितने लाख ग्रावास कहे गए हैं ? |4. उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवास कहे गए हैं। इसी प्रकार (पृथ्वीकाय से लेकर) यावत् ज्योतिष्क देवों तक के असंख्यात लाख विमानावास कहे गए हैं। 5. सोहम्मे गं भंते ! कप्पे कति विमाणावाससतसहस्सा पण्णता? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससतसहस्सा पण्णत्ता एवं बत्तीसऽट्ठावीसा बारस अट्ट चउरो सतसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे // 4 // प्राणय-पाणयकप्पे चत्तारि सताऽऽरण-ऽच्चुए तिष्णि / सत्त विमाणसताई चउसु वि एएसु कप्पेसु // 5 // एक्कारसुत्तरं हेटिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए / सतमेगं उरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा // 6 // [5. प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में कितने विमानावास कहे गए हैं ? [5. उ.] गौतम ! वहाँ बत्तीस लाख विमानावास कहे गए हैं। इस प्रकार क्रमश: बत्तीस लाख, अट्ठाईस लाख, बारह लाख, आठ लाख, चार लाख, पचास हजार तथा चालीस हजार, विमानावास जानना चाहिए। सहस्रार कल्प में छह हजार विमानावास है। ग्राणत और प्राणत कल्प में चार सौ, आरण और अच्युत में तीन सौ, इस तरह चारों में मिलकर सात सौ विमान हैं। अधस्तन (नीचले) अवेयक त्रिक में एक सौ ग्यारह, मध्यम (वोच के) मे वेयक विक्र में एक सौ सात और ऊपर के ग्रेवेयक त्रिक में एक सौ विमानावास हैं / अनुत्तर विमानावास पांच ही हैं। विवेचन-चौबीस दण्डकों को आवास संख्या का निरूपण-प्रस्तुत पांच सूत्रों में नरक पृथ्वियों से लेकर पंच अनुत्तर विमानवासी देवों तक के आवासों की संख्या के सम्बन्ध में प्रतिपादन किया गया है। 6. पुढवि ष्टुिति 1 प्रोगाहण 2 सरीर 3 संघयणमेव 4. संठाणे 5 / लेसा 6 विट्ठी 7 गाणे 8 जोगुवनोगे -10 य दस ठाणा // 14 // प्रर्थाधिकार सू. 6.] पृथ्वी (नरक भूमि) आदि जीवावासों में 1. स्थिति, 2. अवगाहना, 3. शरीर, 4. संहनन, 5. संस्थान, 6. लेश्या, 7. दृष्टि, 8. ज्ञान, 9. योग और 10 उपयोग इन दस स्थानों (बोलों) पर विचार करना है। नारकों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक प्रथम स्थितिस्थानद्वार 7. इमोसे णं भंते ! रतणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावाससतसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरतियाणं केवतिया ठितिठाणा पण्णता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org