________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] शेष दण्डकों में कांक्षामोहनीय कर्मवेदन-पृथ्वीकाय की तरह अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक ऐसा ही वर्णन जानना चाहिए / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय से वैमानिक तक समुच्चयजीव के वर्णन की तरह समझना चाहिए / श्रमण-निर्ग्रन्थ को भी कांक्षामोहनीयकर्म-वेदन-श्रमणनिर्ग्रन्थों की बुद्धि आगमों के परिशीलन से शुद्ध हो जाती है, फिर उन्हें कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कैसे हो सकता है ? इस आशय से गौतम स्वामी का प्रश्न है। ज्ञानान्तर--एक ज्ञान से दूसरा ज्ञान / यथा पांच ज्ञान क्यों कहे गये ? अवधि और मनः पर्याय ये दो ज्ञान पृथक क्यों ? दोनों रूपी पदार्थों को जानते हैं, दोनों विकल एवं अतीन्द्रिय हैं, क्षायोपशमिक हैं। फिर भेद का क्या कारण है ? इस प्रकार का संदेह होना / यद्यपि विषय, क्षेत्र, स्वामी आदि अनेक अपेक्षामों से दोनों ज्ञानों में अन्तर है, उसे न समझ कर शंका करने से और शंकानिवारण न होने से कांक्षा, विचिकित्सा और कलुषता आदि पाती है। दर्शनान्तर-सामान्य बोध, दर्शन है / यह इन्द्रिय और मन से होता है / फिर चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, इस प्रकार से दो भेद न करके या तो इन्द्रियदर्शन और मनोदर्शन, यों दो भेद करने थे, या इन्द्रियजन्य और अनिन्द्रियजन्य, यों दो भेद करने थे, अथवा श्रोत्रदर्शन, रसनादर्शन, मनोदर्शन आदि 6 भेद करने चाहिए थे / किन्तु चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, ये दो भेद करने के दो मुख्य कारण हैं(१) चक्षुदर्शन विशेष रूप से कथन करने के लिए और अचक्षुदर्शन सामान्य रूप से कथन के लिए है / (2) चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी है, शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं / मन अप्राप्यकारी होते हुए भी सभी इन्द्रियों के साथ रहता है / इस प्रकार का समाधान न होने से शंकादि दोषों से ग्रस्त हो जाता है। ___ अथवा 'दर्शन' का अर्थ सम्यक्त्व है। उसके विषय में शंका पैदा होना। जैसे-ौपशमिक और क्षायोपशमिक दोनों सम्यक्त्वों का लक्षण लगभग एक-सा है, फिर दोनों को पृथक-पृथक क बताने का क्या कारण है ? ऐसी शंका का समाधान न होने पर कांक्षामोहनोयकर्म का वेदन करते हैं। इसका समाधान यह है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में प्रदेशानुभव को अपेक्षा उदय होता है, जबकि औपशमिक सम्यक्त्व में प्रदेशानुभव हो नहीं होता। इस कारण दोनों को पृथक-पृथक कहा गया है। चारित्रान्तर–चारित्र विषयक शंका होना / जैसे-सामायिक चारित्र सर्वसावधविरति रूप है और महाव्रतरूप होने से छेदोपस्थापनिक चारित्र भी अवद्यविरति रूप है, फिर दोनों पृथक्-पृथक क्यों कहे गए हैं ? इस प्रकार की चारित्रविषयक शंका भी कांक्षामोहनीय कर्मवेदन का कारण बनते है। समाधान यह है कि चारित्र के ये दो प्रकार न किये जाए तो केवल सामायिक चारित्र ग्रहण करने बाले साधु के मन में जरा-सी भूल करते ही ग्लानि पैदा होती कि मैं चारित्रभ्रष्ट हो गया ! क्योंकि उसकी दृष्टि से केवल सामायिक ही चारित्ररूप है। इसलिए प्रथम सामायिक चारित्र ग्रहण करने के बाद दूसरी बार महावतारोपण रूप छेदोषस्थापनीय चारित्र ग्रहण करने पर सामायिक सम्बन्धी थोड़ी भूल हो जाए तो भी उसके महानत खण्डित नहीं होते / इसीलिए दोनों चारित्रों के ग्रहण करने का विधान प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के क्रमशः ऋजुजड़ और वक्रजड़ साधुओं के लिए अनिवार्य बताया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org