________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] [77 चौबोस दण्डकों तथा श्रमणों के कांक्षामोहनीयवेदन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 14. [1] नेरइया णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएंति ? जहा प्रोहिया जीवा तहा नेरइया जाव थणितकुमारा। [14-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? [14-1 उ.] हाँ, गौतम ? वेदन करते हैं। सामान्य (ोधिक) जीवों के सम्बन्ध में जैसे आलापक कहे थे, वैसे ही नैरयिकों के सम्बन्ध में यावत् स्तनितकुमारों (दसवें भवनपति देवों) तक समझ लेने चाहिए। [2] पुढविक्काइया णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम वेदेति ? हंता, वेदेति। [14-2 प्र.] भगवन् ? क्या पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? [14-2 उ,] हाँ, गौतम ! वे वेदन करते हैं / [3] कहं णं भंते ! पुढविक्काइया कंखामोहणिज्ज कम्म बर्देति ? गोयमा ! तेसि णं जोवाणं गो एवं तक्का इ वा सण्णा इ वा पण्णा इ वा मणे इ वा वई ति वा 'अम्हे णं कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेमो' वेदेति पुण ते। [14-3 प्र.] भगवन् ! पृथ्वोकायिक जीव किस प्रकार कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन करते हैं ? [14-3 उ.] गौतम ! उन जीवों को ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन नहीं होता कि 'हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं'; किन्तु वे उसका वेदन अवश्य करते हैं। [4] से णणं भंते ! तमेव सच्चं नोसंकं जंजिर्णोह पवेदियं / सेसं तं चैव जाव पुरिसक्कार-परक्कमेणं ति वा। [14.4 प्र.] भगवन् ! क्या वहो सत्य और निःशंक है, जो जिन-भगवन्तों द्वारा प्ररूपित है ? [14-4 उ.] हाँ, गौतम ! यह सब पहले के समान जानना चाहिए-अर्थात्-जिनेन्द्रों द्वारा जो प्ररूपित है, वही सत्य और निःशंक (असंदिग्ध) है, यावत्-पुरुषकार-पराक्रम से निर्जरा होती है / [5] एवं जाव चरि दिया। [14-5] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियजीवों तक जानना चाहिए / [6] पंचिदियतिरिक्खजोणिया जाव येमाणिया जहा प्रोहिया जीवा। [14-6] जैसे सामान्य जीवों के विषय में कहा है, वैसे ही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों से लेकर यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए / 15. [1] अस्थि णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्नं कम्मं वेदेति ? हंता, अस्थि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org