________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वैसे ही कर्म की उदीरणा आदि का प्रधान एवं स्वतंत्र कर्ता जीव को ही समझना चाहिए / (2) उदीरणा के साथ गर्दा और संवरणा (संवर) को रखने का कारण यह है कि ये दोनों उदीरणा के साधन हैं। (3) कर्म की उदीरणा में काल, स्वभाव, नियति, गुरु आदि भी कारण हैं, फिर भी जीव के उत्थान आदि पुरुषार्थ की प्रधानता होने से उदीरणा आदि में आत्मा के पुरुषार्थ को कारण बताया गया है। गर्दा प्रादि का स्वरूप अतीतकाल में जो पापकर्म किया, उनके कारणों को ग्रहण (कर्मबन्ध के कारणों का विचार) करके आत्मनिन्दा करना गहीं है। इससे पापकर्म के प्रति विरक्तिभाव जागृत होता है / गहीं प्रायश्चित्त की पूर्वभूमिका है, और उदीरणा में सहायक है / वर्तमान में किये जाने वाले पापकर्म के स्वरूप को जानकर या उसके कारण को समझकर उस कर्म को रोकना या उसका त्याग-प्रत्याख्यान कर देना संवर है। उदीर्ण (उदय में आए हुए) कर्म का क्षय होता है और जो उदय में नहीं आए हैं, उनके विपाक और प्रदेश का अनुभव न होना-कर्म की ऐसी अवस्था को उपशम कहते हैं। शास्त्रानुसार उपशम अनुदीर्ण कर्मों का विशेषतः मोहनीय कर्म का ही होता है, अन्य कर्मों का नहीं। वेदना और गर्दा—वेदन का अर्थ है-उदय में आए हुए कर्म-फल को भोगना / दूसरे की वेदना दूसरे को नहीं होती, न ही दूसरा दूसरे की वेदना को भोग सकता है / पुत्र की वेदना से माता दुःखी होती है, परन्तु पुत्र को पुत्र की वेदना होती है, माता को अपनी वेदना—मोहममत्व सम्बन्ध के कारण पीड़ा होती है। और यह भी सत्य है, अपनी वेदना को स्वयं व्यक्ति से, समभाव से या गर्हा से भोगकर मिटा सकता है, दूसरा नहीं / वेदना और गर्हा दोनों पदों को साथ रखने का कारण यह है कि सकाम वेदना और सकाम निर्जरा बिना गर्दा के नहीं होती। अतः सकाम वेदना और सकाम निर्जरा का कारण गर्दा है, वैसे संवर भी है / कर्मसम्बन्धी चतुर्भगी-मूल में जो चार भंग कहे हैं, उनमें से तीसरे भंग में उदीरणा, दूसरे भंग में उपशम, पहले भंग में वेदन और चौथे भंग में निर्जरा होती है। शेष सब बातें सब में समान हैं।' निष्कर्ष यह है कि उदय में न आए हुए, किन्तु उदीरणा के योग्य कर्मों की उदीरणा होती है, अतुदीर्ण कर्मों का उपशम होता है, उदीर्ण कर्म का वेदन होता है, और उदयानन्तर पश्चात्कृत (उदय के बाद हटे हुए) कर्म की निर्जरा होती है। 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 58-59 (ख) "अणमेत्तो वि, ण कस्सइ बंधो, परवत्थुपच्चयो भणियो।" (ग) “मोहस्सेवोपसमो खग्रोवसमो चउण्ह घाईणं / उदयक्खयपरिणामा अठगह वि होंति कम्माणं // " (घ) "तइएण उदीरेंति, उवसामेति य पुणो वि बीएणं / वेइंति निज्जरंति य पढमचउत्थेहिं सब्बेऽवि // " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org