________________ 74] [ व्याख्याप्राप्तिसूत्र [2] जंतं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ अप्पणा चेव गरहेइ, अप्पणा चेव संवरेइ तं उदिण्णं उदोरेइ 1 अणुदिण्णं उदीरेइ 2 अणुदिण्णं उदीरणामवियं कम्मं उदोरेइ 3 उदयाणंतरपच्छाकडं कम्म उदीरेइ 4? गोयमा ! नो उदिण्णं उदीरेइ 1, नो अणुदिण्णं उदीरेइ 2, अणुदिण्णं उदीरणावियं कम्म उबीरेइ 3, णो उदयाणंतरपच्छाकडं कम्म उदीरेइ 4 / / [10-2 प्र. भगवन् ! वह जो अपने आप से ही उसकी उदीरणा करता है, गर्दा करता है और संवर करता है, तो क्या उदीर्ण (उदय में आए हुए) को उदीरणा करता है ? ; अनुदीर्ण (उदय में नहीं आए हुए) की उदीरणा करता है ?; या अनुदीर्ण उदीरणाभविक (उदय में नहीं आये हुए, किन्तु उदीरणा के योग्य) कर्म की उदीरणा करता है ? अथवा उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की उदीरणा करता है? [10-2 उ.] गौतम ! उदीर्ण की उदीरणा नहीं करता, अनुदीर्ण की भी उदीरणा नहीं करता, तथा उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की भी उदीरणा नहीं करता, किन्तु अनुदीर्ण-उदीरणाभविक (योग्य) कर्म की उदीरणा करता है। [3] जं तं भंते ! अणुदिण्णं उदोरणाभवियं कम्मं उदीरेइ तं कि उहाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदोरणावियं कम्मं उदोरेइ ? उदाहु तं अणुटाणेणं अकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदोरणावियं कम्मं उदोरेइ ? गोयमा ! तं उढाणेण वि कम्मेण वि बलेण वि वीरिएण वि पुरिसक्कारपरक्कमेण वि अणुदिण्णं उदोरणावियं कम्मं उदीरेइ, गोतं अणुढाणणं प्रकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ / एवं सति अस्थि उटाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा बोरिए इवा पुरिसरकारपरक्कमे इ वा। [10-3 प्र.] भगवन् ! यदि जीव अनुदीर्ण-उदीरणाभविक को उदीरणा करता है, तो क्या उत्थान से, कर्म से, बल से, बीर्य से और पुरुषकार-पराक्रम से उदीरणा करता है, अथवा अनुत्थान से, अकर्म से, प्रबल से, अवीर्य से और अपुरुषकार-पराक्रम से उदोरणा करता है ? [10-3 उ.] गौतम ! वह अनुदीर्ण-उदीरणा-भविक कर्म की उदीरणा उत्थान से, कर्म से, बल से, वीर्य से और पुरुषकार-पराक्रम से करता है, (किन्तु) अनुत्थान से, अकर्म से, अबल से; अवीर्य से और अपुरुषकार-पराक्रम से उदीरणा नहीं करता / अतएव उत्थान है, कर्म है, बल है, वीर्य है और पुरुषकार पराक्रम है / 11. [1] से नणं भंते ! अप्पणा चेव उवसामेह, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरेइ ? हंता, गोयमा ! एत्थ वि तं चेव माणियब्वं, नवरं अणुदिण्णं उवसामेइ, सेसा पडिसेहेयव्वा तिणि / 11-1 प्र.] भगवन् ! क्या वह अपने आप से ही (कांक्षा-मोहनीय कर्म का) उपशम करता है, अपने आप से ही गहीं करता है और अपने आप से ही संवर करता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org