________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३] कर्मबन्ध के कारण यद्यपि कर्मबन्ध के 5 मुख्य कारण बताए गए हैं, तथापि यहाँ प्रमाद और योग दो कारण बताने का प्राशय यह है कि मिथ्यात्व, अविरति और कषाय का अन्तर्भाव प्रमाद में हो जाता है। यद्यपि सिद्धान्तानुसार छठे से आगे के गुणस्थानों में प्रमाद नहीं होता, फिर भी जहाँ (दसवें गुणस्थान) तक कषाय है, वहाँ तक सूक्ष्म प्रमाद माना जाता है, स्थूल प्रमाद नहीं। इसलिए वहाँ तक प्रायः मोहनीयकर्म का बन्ध होता है / दसवें गुणस्थान में कषाय अत्यल्प (सूक्ष्म) होने से मोहकर्म का बन्ध नहीं होता है। यों प्रमाद के शास्त्रोक्त पाठ भेदों में इन तीनों के अतिरिक्त और भी कई विकार प्रमाद के अन्तर्गत हैं।' शरीर का कर्ता कौन ?-प्रस्तुत में शरीर का कर्ता जीव को बताया गया है, किन्तु जीव का अर्थ यहाँ नामकर्मयुक्त जीव समझना चाहिए। इससे सिद्ध, ईश्वर या नियति आदि के कर्तृत्व का निराकरण हो जाता है। उत्थान आदि का स्वरूप-अर्ध्व होना, खड़ा होना या उठना उत्थान है। जीव की चेष्टाविशेष को कर्म कहते हैं। शारीरिक प्राण बल कहलाता है / जीव के उत्साह को बीर्य कहते हैं। पुरुष को स्वाभिमानपूर्वक इष्टफलसाधक क्रिया पुरुषकार है और शत्रु को पराजित करना पराक्रम है। शरीर से वीर्य को उत्पत्ति : एक समाधान-वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से वीर्य उत्पन्न होता है, और सिद्ध भगवान् इस कर्म का क्षय कर चुके हैं। किन्तु प्रस्तुत में बताया गया है कि वीर्य की उत्पत्ति शरीर से होती है, ऐसी स्थिति में सिद्ध या अलेश्यो भगवान् वीर्यरहित सिद्ध होते हैं, क्योंकि सिद्धों के शरीर नहीं होता / इस शंका का समाधान यह है कि वीर्य दो प्रकार के होते हैं-सकरणवीर्य और अकरणवीर्य / सिद्धों में या अलेश्यी भगवान् में प्रकरणवीर्य है, जो प्रात्मा का परिणाम विशेष है, उसका शरीरोत्पन्न वीर्य (सकरण वीर्य) में समावेश नहीं है / अत: यहाँ सकरणवीर्य से तात्पर्य है। कांक्षामोहनीय को उदोरणा, गहीं आदि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 10. [1] से गूणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अध्पणा चेव संवरेइ ? हंता, गोयमा ! अस्पणा चेव तं चेव उच्चारेयन्वं 3 / [10-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव अपने आपसे हो उस (कांक्षामोहनीय कर्म) को उदीरणा करता है, अपने आप से ही उसकी गर्दा करता है और अपने आप से ही उसका संवर करता है ? [10-1 उ.हाँ, गौतम ! जीव अपने आप से ही उसकी उदीरणा, गर्हा और संवर करता है। 1. (क) भगवतीसूत्र प्र. वत्ति, पत्रांक 56-57 (ख) पमानो य मुणिदेहिं भणिो अट्ठभेयो / अण्णाणं संसपो चेव मिच्छाना तहेव य / / रागदोसो महबभंसो, धम्ममि य अणायरो। जोगाणं दुप्पणिहाणं अटुहा वज्जियवयो॥-भगवती अ. वत्ति पत्रांक 57 में उद्धत / (ग) “मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा: बन्धहेतव:'.-तत्त्वार्थ. प्र.८ सुत्र 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org