________________ सम्पादकीय भगवतीसूत्र : एकादशांगो का उत्तमांग जैन-आगम-साहित्य में समस्त जैनसिद्धान्तों के मूल स्रोत बारह अंगशास्न माने जाते हैं ( जो 'द्वादशांगी' के नाम से अतीव प्रचलित हैं। इन वारह अंगशास्त्रों में 'दष्टिवाद' नामक अन्तिम अंगशास्त्र विच्छिन्न हो जाने के कारण अब जनसाहित्य के भंडार में एकादश अंगशास्त्र ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। ये अंग 'एकादशांगी' अथवा 'गणिपिटक' के नाम से विश्रुत हैं। जो भी हो, वर्तमान काल में उपलब्ध ग्यारह अंगशास्त्रों में भगवती अथवा 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' सूत्र जैन आगमों का उत्तमांग माना जाता है। एक तरह से समस्त उपलब्ध नागमों में भगवती सून सर्वोच्चस्थानीय एवं विशालकाय शास्त्र है। द्वादशांगी में व्याख्याप्रज्ञप्ति पंचम अंगशास्त्र है, जो गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित है। नामकरण और महत्ता वीतराग सर्वज्ञ प्रभु की वाणी अद्भुत ज्ञाननिधि से परिपूर्ण है। जिस शास्त्रराज में अनन्तलब्धिनिधान गगधर गुरु श्रीइन्द्रभूति गौतम तथा प्रसंगवश अन्य श्रमणों आदि द्वारा पूछे गए 36,000 प्रश्नों का श्रमण शिरोमणि भगवान महावीर के श्रीमुख से दिये गए उत्तरों का संकलन-संग्रह है, उसके प्रति जनमासन में श्रद्धाभक्ति और पूज्यता होना स्वाभाविक है। वीतरागप्रभ की वाणी में समग्र जीवन को पावन एवं परिवर्तित करने का अद्भुत सामर्थ्य है, वह एक प्रकार से भागवती शक्ति है, इसी कारण जब भी व्याख्याप्रज्ञप्ति का वाचन होता है तब गणधर भगवान् श्रीगौतमस्वामी को सम्बोधित करके जिनेश्वर भगवान महावीर प्रभु द्वारा व्यक्त किये गए उद्गारों को सुनते ही भावुक भक्तों का मन-मयूर श्रद्धा-भक्ति से गद्गद होकर नाच उठता है / श्रद्धालु भक्तगण इस शास्त्र के श्रवण को जीवन का अपूर्व अलभ्य लाभ मानते हैं। फलतः अन्य अंगों की अपेक्षा विशाल एवं अधिक पूज्य होने के कारण व्याख्याप्रज्ञप्ति के पूर्व 'भगवती' विशेषण प्रयुक्त होने लगा और शताधिक वर्षों से तो 'भगवती' शब्द विशेषण न रह कर स्वतंत्र नाम हो गया है / वर्तमान में व्याख्याप्रज्ञप्ति की अपेक्षा 'भगवती' नाम ही अधिक प्रचलित है / वर्तमान 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' का प्राकृतभाषा “वियाहपण्णत्ति' नाम है / कहीं-कहीं इसका नाम 'विवाहपग्णत्ति' या 'विवाहपण्णत्ति' भी मिलता है। किन्तु वत्तिकार प्राचार्यश्री अभयदेव सूरि ने 'वियाहपण्णत्ति' नाम को ही प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित माना है। इसी के तीन संस्कृतरूपान्तर मान कर इनका भिन्न-भिन्न प्रकार से अर्थ किया है व्याख्याप्रज्ञप्ति--गौतमादि शिष्यों को उनके द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में भगवान महावीर के विविध प्रकार से कथन का समग्रतया विशद (प्रकृष्ट) निरूपण जिस ग्रन्थ में हो। अथवा जिस शास्त्र में विविधरूप से भगवान् के कथन का प्रज्ञापत-प्ररूपण किया गया हो / व्याख्या-प्रज्ञाप्ति-व्याख्या करने की प्रज्ञा (बुद्धिकुशलता) से प्राप्त होने वाला अथवा व्याख्या करने में भगवान से गणधर को जिस ग्रन्थ द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो, वह श्रतविशेष / [15] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org