________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र {5] नेरइया णं भंते ! सव्वे समवेदणा? गोयमा ! नो इग? सम? / से केण?णं ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–सण्णिभूया य असण्णिभूया य / तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं महावेयणा, तत्थ णं जे ते प्रसण्णिभूया ते गं अप्पवेयणतरागा / से तेणवणं गोयमा ! 0 // 5 // [5-5 प्र. भगवन् ! क्या सब नारक समान वेदना वाले हैं ? [5-5 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! नैरपिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत। इनमें जो संज्ञिभूत हैं, वे महावेदना वाले हैं और जो इनमें असंज्ञिभूत हैं, वे (अपेक्षाकृत) अल्पवेदना वाले हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सब नारक समान वेदना वाले नहीं है। [6] नेरइया णं भंते ! सम्वे समकिरिया ? गोयमा ! मो इण8 सम? / से केण?णं? गोयमा ! नेरइया तिविहा पण्णत्ता। तं जहा–सम्मट्ठिी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छट्ठिी। तत्थ णं जे ते सम्माविट्ठो तसि णं चत्तारि किरियानो पण्णत्तानो, तं जहा-प्रारंभिया 1, पारिग्गह्यिा 2, मायावत्तिया 3, अपच्चक्खाण किरिया 4 / तत्थ णं जे ते मिच्छादिट्ठी तेसि णं पंच किरियानो कन्जंति, तं जहा—प्रारंभिया नाव मिच्छादसणवत्तिया। एवं सम्माभिच्छादिट्ठीणं पि। से तेण?णं गोयमा ! 0 // 6 // 15-6 प्र.] हे भगवन् ! क्या सभी नै रयिक समान क्रिया वाले हैं ? [5-6 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.) भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! नारक तीन प्रकार के कहे गए हैं यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) / इनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएँ कही गई हैं, जैसे किप्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया / इनमें जो मिथ्यादृष्टि हैं, उनके पांच क्रियाएँ कही गई हैं, वे इस प्रकार-प्रारम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यया तक / इसी प्रकार सम्यमिथ्यादृष्टि के भी पांचों क्रियाएँ समझनी चाहिए। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सब नारक समानक्रिया वाले नहीं हैं। [7] नेरइया णं भंते ! सम्वे समाउया? सव्वे समोववन्नगा ? गोयमा ! णो इण8 सम8 / से केण?णं? गोयमा ! नेरइया च विवहा पण्णता तं जहा—प्रत्येगइया समाउया समोववन्नगा 1, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा 2, प्रत्येगइया विसमाउया समोववन्नगा 3, प्रत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा 4 / से तेण?णं गोयमा ! 0 // 7 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org