________________ प्रयम शतक : उद्देशक-२ ] [ 56 चरगपरिवायगाणं , किदिवसियाणं 10, तेरिच्छियाणं 11, प्राजोवियाणं 12, प्राभिनोगियाणं 13, सलिगोणं दंसणवावनगाणं 14, एएसि णं देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्त कहिं उववाए पण्णते? __ गोयमा ! प्रासंजतवियदन्यदेवाणं जहन्नणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं उरिमविज्जएसु 1 / अविराहियसंजमाणं जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सबसिद्ध विमाणे 2 / विराहियसंजमाणं जहन्नेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं सोधम्मे कप्पे 3 / अविराहियसंजमाइसंजमाणं जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे 4 / विराहियसंजमासंजमाणं जहन्नेणं भवणवासोसु, उक्कोसेणं जोतिसिएसु / प्रसण्णोणं जहन्नेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु 6 / प्रवसेसा सव्वे जहन्नेणं भवणवासीसु, उक्कोसगं वोच्छामि-तावसाणं जोतिसिएसु 7 / कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे 8 / चरग-परिवायगाणं बंभलोए कप्पे / किविसियाणं लंतगे कप्पे 10 / तेरिच्छियाणं सहस्सारे कप्पे 11 / प्राजोवियाणं अच्चुए कप्पे 12 / प्राभिप्रोगियाणं अच्चए कप्पे 13 / सलिगोणं दसणवावनगाणं उरिमगेवेज्जएसु 14 / _ [16. प्र.] भगवन् ! (1) असंयत भव्यद्रव्यदेव, (2) अखण्डित संयम वाला, (3) खण्डित संयम वाला, (4) अखण्डित संयमासंयम (देशविरति) वाला, (5) खण्डित संयमासंयम वाला, (6) असंज्ञी, (7) तापस, (8) कान्दपिक, (9) चरकपरिव्राजक, (10) किल्विषिक, (11) तिर्यञ्च (12) आजीविक, (13) आभियोगिक, (14) दर्शन (श्रद्धा) भ्रष्ट वेषधारी, ये सब यदि देवलोक में उत्पन्न हों तो, किसका कहाँ उपपात (उत्पाद) होता है ? . [19. उ.] गौतम! असंयतभव्यद्रव्यदेवों का उत्पाद जघन्यतः भवनवासियों में और उत्कृष्टतः ऊपर के अवेयकों में कहा गया है। अखण्डित (अविराधित) संयम बालों का जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान में, खण्डित संयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में, अखण्डित संयमासंयम का जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, खण्डित संयमासयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में, असज्ञी जीवों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाण-व्यन्तरदेवों में और शेष सबका उत्पाद जघन्य . भवनवासियों में होता है ; उत्कृष्ट उत्पाद आगे बता रहे हैं-नापसों का ज्योतिष्कों में, कान्दापकों का सौधर्मकल्प में, चरकपरिव्राजकों का ब्रह्मलोक कल्प में, किल्वि षिकों का लान्तक कल्प में, तिर्यञ्चों का सहस्रारकल्प में, प्राजोविकों तथा आभियोगिकों का अच्युतकल्प में, और श्रद्धाभ्रष्ट वेषधारियों का ऊपर के अवेयकों तक में उत्पाद होता है / विवेचन----प्रसंयतभव्यद्रव्यदेव श्रादि के देवलोक उत्पाद के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में विविध प्रकार के 14 आराधक-विराधक साधकों तथा अन्य जीवों की देवलोक-उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं / इनका अर्थ इस प्रकार है असंयत भव्यद्रव्यदेव-(१) जो असंयत चारित्रपरिणामशून्य हो, किन्तु भविष्य में देव होने योग्य हो, (2) असंयत भव्यद्रव्य देव का अर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि जीव भी हो सकता है, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org