________________ 54] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उदय से यह वेदना हो रही है ? यद्यपि सुमेरु पर्वत में जो जीव है, उनका छेदन-भेदन नहीं होता, तथापि पृथ्वीकाय का जब भी छेदन-भेदन किया जाता है तब सामान्यतया वैसी ही वेदना होती है, जैसी अन्यत्र स्थित पृथ्वीकायिक जीवों को होती है।' पृथ्वीकायिक जीवों में पाँचों क्रियाएँ कैसे ?-यद्यपि पृथ्वीकायिक जीव बिना हटाए एक स्थान से दूसरे स्थान पर हट भी नहीं सकते, वे सदा अव्यक्त चेतना की दशा में रहते हैं, फिर भी भगवान् कहते हैं कि वे पांचों क्रियाएँ करते हैं। वे श्वासोच्छ्वास और आहार लेते हैं, इन क्रियानों में प्रारम्भ होता है / वास्तव में प्रारम्भ का कारण केवल श्वासादि क्रिया नहीं, अपितु प्रमाद और कषाय से युक्त क्रिया है। यही कारण है कि तेरहवें गणस्थान वाले भी श्वासादि क्रिया करते हैं. तथापि वे आरम्भी नहीं कहलाते / निष्कर्ष यह है कि चाहे कोई जीव चले-फिरे नहीं, तथापि जब तक प्रमाद और कषाय नहीं छूटते, तब तक वह प्रारम्भी है और कषाय एवं प्रमाद के नष्ट हो जाने पर चलने-फिरने की क्रिया विद्यमान होते हुए भी वह अनारम्भी है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मायीमिथ्यादृष्टि जीव प्रायः पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं। यद्यपि पृथ्वीकायिक मायाचार करते दिखाई नहीं देते, किन्तु माया के कारण ही वे पृथ्वीकाय में आए हैं। जीव किसी भी योनि में हो, यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो शास्त्र उसे मायी-मिथ्याष्टि कहता है। मायी का एक अर्थ अनन्तानुबन्धी कषाय है, और जहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होता है, वहाँ मिथ्यात्व अवश्यम्भावी है। इस दृष्टि से पृथ्वोकायिक जीवों में प्रारम्भिको आदि पांचों क्रियाएँ होती हैं। मनुष्यों के श्राहार को विशेषता—मनुष्य दो प्रकार के होते हैं--महाशरीरी और अल्पशरीरी। महाशरीरी मनुष्य और नारकी दोनों बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, किन्तु दोनों के पुद्गलों में बहुत अन्तर है / महाशरीरी नारको जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे निःसार और स्यूल होते हैं, जबकि मनुष्य विशेषतः देवकुरु-उत्तरकुरु के भोगभूमिज मनुष्य जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे सारभूत और सूक्ष्म होते हैं। भोगभूमिज मनुष्यों का शरीर तीन गाऊ का होता है और उनका आहार अष्टभक्त-अर्थात्-तीन दिन में एक बार होता है, इस अपेक्षा से महाशरीर मनुष्यों को कदाचित् अाहार करने वाले (एक दृष्टि से अल्पाहारी) कहा गया है। जैसे एक तोला चाँदी से एक तोला सोने में अधिक पुद्गल होते हैं, वैसे ही देवकुरु-उतरकुरु के मनुष्यों का आहार दीखने में कम होते हुए भी सारभूत होने से उसमें अल्पशरीरी मनुष्य के प्राहार की अपेक्षा अधिक पुद्गल होते हैं / इस दृष्टि से उन्हें बहुत पुद्गलों का आहार करने वाला कहा गया है। अल्पशरीरी मनुष्यों का पाहार निःसार एवं थोड़े पुद्गलों का होने से उन्हें बार-बार करना पड़ता है। जैसे कि बालक बार-बार ग्राहार करता है। कुछ पारिभाषिक शब्दों को व्याख्या--जो संयम का पालन करता है, किन्तु जिसका संज्वलन कषाय क्षीण या उपशान्त नहीं हुआ, वह सरागसंयत कहलाता है। जिसके कपाय का सर्वथा क्षय या उपशम हो गया है, वह वीतरागसंयत कहलाता है / 1. (क) भगवती अ० वत्ति 50 44 (ख) पुढविक्काइयस्स प्रोगाहणठ्याए चउठाणवडिए' (ग) “अनिदा चित्तविकला सम्यगविवेकविकला वा'-प्रज्ञापना वत्ति पृ० 557 / 'अणिकाए त्ति अविर्धारणया वेदना वेदयन्ति, वेदनामनुभवन्तोऽपि मिथ्याष्टित्त्वात् विमनस्कत्वाद् वा मत्त-मूच्छितादिवत् नावगच्छन्ति'- भगवती सूत्र अ० वृत्ति, प. 44 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org