________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [53 जीव नरक में पहले उत्पन्न हुआ, कोई बाद में। (3) विषमायुष्क समोपपन्नक-जिनको आयु समान नहीं है, किन्तु नरक में एक साथ उत्पन्न हुए हों, (4) विषमायुष्क विषमोपपन्नक-एक जीव ने 10 हजार वर्ष की नरकायु आँधी और दूसरे ने 1 सागरोपम को; किन्तु वे दोनों नरक में भिन्न-भिन्न समय में उत्पन्न हुए हों। असुरकुमारों का प्राहार मानसिक होता है। आहार ग्रहण करने का मन होते हो इष्ट, कान्त आदि पाहार के पुद्गल आहार के रूप में परिणत हो जाते हैं / असुरकुमारों का आहार और श्वासोच्छ्वास–पूर्वसूत्र में असुरकुमारों का आहार एक अहोरात्र के अन्तर से और श्वासोच्छ्वास सात स्तोक में लेने का बताया गया था. किन्तु इस सूत्र में बार-बार प्राहार और श्वासोच्छ्वास लेने का कथन है, यह पूर्वापरविरोध नहीं, अपितु सापेक्ष कथन है। जैसे एक असुरकुमार एक दिन के अन्तर से आहार करता है, और दूसरा असुरकुमार देव सातिरेक (साधिक) एक हजार वर्ष में एक बार आहार करता है / अतः सातिरेक एक हजार वर्ष में एक बार प्रहार करने वाले की अपेक्षा एक दिन के अन्तर से पाहार करने वाला बार-बार पाहार करता है, ऐसा कहा जाता है। यही बात श्वासोच्छ्वास के सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिए / सातिरेक एक पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेने वाले असुरकुमार को अपेक्षा साथ स्तोक में श्वासोच्छ्वास लेने वाला असुरकुमार बार-बार श्वासोच्छ्वास लेता है, ऐसा कहा जाता है। असुरकुमार के कर्म, वर्ण और लेश्या का कथन : नारकों से विपरोत---इस विपरीतता का कारण यह है कि पूर्वोपपन्नक असुरकुमारों का चित्त अतिकन्दर्प और दर्प से युक्त होने से वे नारकों को बहुत त्रास देते हैं / त्रास सहन करने से नारकों के तो कर्मनिर्जरा होती है, किन्तु असुरकुमारों के नये कर्मों का बन्ध होता है / वे अपनी क्रूरभावना एवं विकारादि के कारण अपनी अशुद्धता बढ़ाते हैं / उनका पुण्य क्षीण होता जाता है, पापकर्म बढ़ता जाता है, इसलिए वे महाकर्मी होते हैं। उनका वर्ण और लेश्या अशुद्ध हो जाती है / अथवा बद्धायुष्क की अपेक्षा पूर्वोत्पन्न असुरकुमार यदि तिर्यञ्चगति का अायुष्य बाँध चुके हों तो वे महाकर्म, अशुद्ध वर्ण और अशुद्ध लेश्या वाले होते हैं। पश्चादुत्पन्न बद्घायुष्क न हो तो वे इसके विपरीत होते हैं।' पृथ्वीकायिक जीवों का महाशरीर और अल्पशरीर-पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर यद्यपि अंगुल के असंख्यातवें भाग कहा गया है, तथापि अंगुल के असंख्यातवें भाग वाले शरीर में भी तरतमता से असंख्य भेद होते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार किसी का शरीर संख्यात भाग हीन है, किसी का असंख्यात भाग हीन है, किसी का शरीर संख्यात भाग अधिक है और किसी का असंख्यात भाग अधिक है। इस चतुःस्थानपतित हानि-वृद्धि की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीव अपेक्षाकृत अल्पशरीरी भी होते हैं और महाशरीरी भी। पृथ्वीकायिक जीवों को समानवेदना : क्यों और कैसे?-पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं और वे असंज्ञी जीवों को होने वाली वेदना को वेदते हैं। उसकी बेदना अनिदा है अर्थात् निर्धारणरहित--- अव्यक्त होती है। असंज्ञी होने से वे मूच्छित या उन्मत्त पुरुष के समान बेसुध होकर कष्ट भोगते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं रहता कि कौन पीड़ा दे रहा है ? कौन मारता-काटता है, और किस कर्म के 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति पत्रांक 41 से 43 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org