________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] सयोग केवलो क्रियारहित कैसे-जो महापुरुष कषायों से सर्वथा मुक्त हो गए हैं, वे क्रियाकर्मबन्ध की कारणभूत क्रिया से रहित हैं / यद्यपि सयोगी अवस्था में योग की प्रवृत्ति से होने वाली ईपिथिक क्रिया उनमें विद्यमान है, तथापि वह क्रिया नहीं के बराबर है, इन क्रियानों में उसकी गणना नहीं है। अप्रमत्तसंयत में मायाप्रत्यया क्रिया-इसलिए होती है कि उसमें अभी कषाय अवशिष्ट है। और कषाय के निमित्त से होने वाली क्रिया मायाप्रत्यया कहलाती है। लेश्या की अपेक्षा चौबीस दण्डकों में समाहारादि-विचार--प्रस्तुत १२वें सूत्र में छह लेश्यानों के छह दण्डक (पालापक) और सलेश्य का एक दण्डक, इस प्रकार 7 दण्डकों से यहाँ विचार किया गया है / अगले सूत्र में लेश्याओं के नाम गिनाकर उससे सम्बन्धित सारा तात्त्विक ज्ञान प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद के द्वितीय उद्देशक से जान लेने का निर्देश किया गया है। यद्यपि कृष्णलेश्या सामान्यरूप से एक है, तथापि उसके अवान्तर भेद अनेक हैं-कोई कृष्णलेश्या अपेक्षाकृत विशुद्ध होती है, कोई अविशुद्ध; एक कृष्णलेश्या से नरकगति मिलती है, एक से भवनपति देवों में उत्पत्ति होती है, अतः कृष्णलेश्या के तरतमता के भेद से अनेक भेद हैं, इसलिए उनका आहारादि समान नहीं होता। यही बात सभी लेश्याओं वाले जीवों के सम्बन्ध में जान लेनी चाहिए।' जोवों का संसार संस्थान काल एवं अल्पबहुत्व---- 14. जीवस्स णं भंते ! तोतद्धाए प्रादिगुस्स कइविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णते ? गोयमा ! चउविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णत्ते / तं जहा–णेरइयसंसारसंचिढणकाले, तिरिक्ख जोणियसंसारसंचिट्ठणकाले, मणुस्ससंसारसंचिठ्ठणकाले, देवसंसारसंचिट्ठणकाले य पण्णत्ते / [१४-प्र.] भगवन् ! अतीतकाल में प्रादिष्ट-नारक आदि विशेषण-विशिष्ट जीव का संसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? [१४-उ.] गौतम ! संसार-संस्थान-काल चार प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार हैनैरयिकसंसार-संस्थानकाल, तिर्यञ्चसंसारसंस्थानकाल, मनुष्य-संसार-संस्थानकाल और देवसंसारसंस्थानकाल / 15. [1] नेरइयसंसारसंचिठ्ठणकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुन्नकाले, असुन्नकाले, मिस्सकाले। [15-1 प्र.] भगवन् ! नरयिकसंसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? (15-1 उ.] गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल / (क) उम्मग्यदेसमो मम्गणासयो गूढहिययमाइल्लो / सढसीलो घससल्लो तिरिया बंधए जीवो।। (ख) भगवती अ० वृत्ति पत्रांक 44 से 46 तक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org