________________ 48] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र.) भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सभी पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना वाले हैं ? [उ.] हे गौतम ! समस्त पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं और असंज्ञीभूत जो व वेदना को अनिर्धारित रूप से (अनिदा से) वेदते हैं। इस कारण, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी पृथ्वीकायिक समान वेदना वाले है। [3] पुढविषकाइया णं भंते ! समकिरिया ? हंता, समकिरिया / से केणढोणं? गोयमा ! पुढविक्काइया सवे माईमिच्छादिदो, ताणं नेय तियानो पंच किरियाप्रो कज्जंति, तं जहा-~-प्रारंभिया 1 जाव मिच्छादसणवत्तिया 5 / से तेणटुणं समकिरिया। [7-3 प्र.] भगवन् ! क्या सभी पृथ्वीकाधिक जीव समान क्रिया वाले हैं ? 7-3 उ. हाँ, गौतम ! वे सभी समान क्रिया बाले हैं। [प्र.] भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? | उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक जीव मायो और मिथ्याष्टि हैं। इसलिए उन्हें नियम से पांचों क्रियाएँ लगती हैं। वे पांच क्रियाएँ ये हैं प्रारम्भिको यावत् मिथ्यादर्शन प्रत्यया। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी पृथ्वोकायिक जीव समानक्रिया वाले हैं। [4] समाउया, समोववन्नगा जहा नेरइया तहा भाणियन्वा / 7-4] जैसे नारक जीवों में समायुष्क और समोपपत्रक आदि चार भंग कहे गए हैं, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों में भी कहने चाहिए। 8. जहा पुढविक्काइया तहा जाव चरिदिया / [8-1] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है, उसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। 6. [1] पाँचदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया / नाणत्तं किरियासु 9-11 पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के माहारादि के सम्बन्ध में कथन भी नैरयिकों के समान समझना चाहिए; केवल क्रियाओं में भिन्नता है। [2] पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सत्वे समकिरिया ? गोयमा ! जो इण? सम? / से केण?णं ? गोयमा! पाँचदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णता। तं जहा~-सम्मट्ठिी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्टी! तत्थ णं जे ते सम्मदिवो ते दुविहा पण्णता, तं जहा--अस्संजता य, संजताऽसंजता य। तत्थ गंजे ते संजताऽसंजता तेसि णं तिनि किरियाओ कज्जति, तं जहा-प्रारम्भिया 1 पारिग्गहिया 2 मायावतिया 3 / असं जताणं चत्तारि / मिच्छादिट्ठीणं पंच / सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच / [9-2 प्र.] भगवन् ! क्या सभी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव समानक्रिया वाले हैं ? [9-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org