________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 33 दिवसपृथक्त्व से और उत्कृष्ट तैतीस हजार वर्ष के पश्चात् होता है। वे 'चलित कर्म को निर्जरा करते हैं. अचलित कर्म को निर्जरा नहीं करते, इत्यादि (यहाँ तक) शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए। विवेचन—पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिक एवं वैमानिक देवों को स्थिति प्रादि का वर्णन-छठे सूत्र के अन्तर्गत चौवीस दण्डकों में से अन्तिम 20 से 24 वें दण्डक के जीवों की स्थिति मादि का निरूपण किया गया है। पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति—प्रस्तुत में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य एवं तीनों निकायों के देवों का समावेश हो जाता है। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य की स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है। वाणव्यन्तर देवों की स्थिति जघन्य 10 हजार वर्ष की, उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। ज्योतिष्क देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम के 5वें भाग को, और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्यापम की है / वैमानिक देवों की औधिक (समस्त वैमानिक देवों की अपेक्षा से सामान्य) स्थिति कही है / औधिक का परिमाण एक पल्योपम से लेकर तैतीस सागरोपम तक है / इसमें जघन्य स्थिति सौधर्म देवलोक को अपेक्षा से और उत्कृष्ट स्थिति अनुत्तरविमानवासी देवों को अपेक्षा से कही गई है। ___तिर्यचों और मनुष्यों के प्राहार को अवधि : किस अपेक्षा से ? प्रस्तुत में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का आहार षष्ठभक्त (दो दिन) बीत जाने पर बतलाया गया है. वह देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के योगलिक तिर्यञ्चों को तथा ऐसी ही स्थिति (प्रायु) वाले भरत-ऐरवन क्षेत्रीय तियंचयौगलिकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यों का आहार अष्टमभक्त बीत जाने पर कहा गया है, वह भी देवकुरु-उत्तरकुरु के यौगलिक मनुष्यों को तथा भरत-ऐरवनक्षेत्र में जब उत्सर्पिणोकाल का छठा पारा समाप्ति पर होता है, और अवसर्पिणी काल का प्रथम प्रारा प्रारम्भ होता है, उस समय के मनुष्यों को अपेक्षा से समझना चाहिए। वैमानिक देवों के श्वासोच्छवास एवं प्राहार के परिमाण का सिद्धान्त--यह है कि जिस वैमानिक देव को जितने सागरोपम की स्थिति हो, उसका श्वासोच्छ वास उतने ही पक्ष में होता है, और याहार उतने ही हजार वर्ष में होता है।' इस दृष्टि से यहाँ श्वासोच्छ्वास और आहार का जघन्य परिमाण जघन्य स्थिति वाले वैमानिक देवों की अपेक्षा और उत्कृष्ट परिमाण उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए / ___मुहूर्तपृथक्त्व : जघन्य और उत्कृष्ट--जघन्य मुहूर्तपृथक्त्व में दो या तीन मुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्तपृथक्त्व में पाठ या नौ मुहूर्त समझना चाहिए।' जीवों को प्रारंभ विषयक चर्चा 7. [1/ जीवा णं भंते ! कि अायारंभा? परारंभा? तभयारंभा ? अणारंभा? 1. ''जस्स जाई सामराई तस्स ठिई तत्तिएहि पक्खेहि। उस्सासो देवाणं वाससहस्सेहि आहारो // " 2. भगवतीमत्र अ. वृत्ति पत्रांक 30-31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org