________________ 34] [ व्याख्याज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! प्रत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि,' नो अणारंभा। प्रत्थेगइया जीवा नो पायारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, प्रणारंभा। [7-1 प्र.] हे भगवन् ! क्या जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं, अथवा अनारम्भी हैं ? [7.1 उ.] हे गौतम ! कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। कितने ही जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी भी नहीं हैं, और न ही उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं / [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति-प्रत्थेगइया जोवा प्रायारंभा वि ? एवं पडिउच्चारेतन्वं / गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-संसारसमावन्नगा य प्रसंसारसमावन्नगा य / तत्य णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा शं नो प्रायारंभा जाव प्रणारंभा / तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुबिहा पण्णत्ता / तं जहा—संजता य, असंजता य / तत्थ गंजे ते संजता ते दुविहा पण्णता / तं जहा-पमत्तसंजता य, अप्पमत्तसंजता या तत्थ पंजे ते अप्पमत्तसंजता तेणं नो मायारंभा, नो परारंभा, जाव प्रणारंमा। तस्य गंजे ते पमतसंजया ते सुभं जोगं पडुच्च नो आयारंभा जाव प्रणारंभा, असुमं जोगं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा। तत्थ शं जे ते असंजता ते अविति पडुच्च प्रायारंभा वि जाव नो अणारंभा / से तेण?णं गोयमा ! एवं बच्चइ-अत्थेगइया जीवा जाव' प्रणारंभा। 7-2 प्र.) भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं ? इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न का फिर से उच्चारण करना चाहिए। 7.2 उ.] गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं-संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक / उनमें से जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध (मुक्त) हैं और सिद्ध भगवान् न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न हो उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं / जो संसार मापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं.–संयत और असंयत / उनमें जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं ; जसे कि-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत / उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, वे न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं, और न उभयारम्भी हैं; किन्तु अनारम्भी हैं / जो प्रमत्तसंयत हैं, वे शुभ योग की अपेक्षा न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं, और न उभयारम्भी हैं; किन्तु अनारम्भी हैं / अशुभयोग की अपेक्षा वे आत्मारम्भी भी हैं, परारंभी भी है और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं ! जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा प्रात्मारम्भी हैं, परारम्भी है, उभयारम्भी हैं किन्तु अतारम्भी नहीं हैं। इस कारण (हेतु से) हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, यावत् अनारम्भी भी हैं। 1. 'वि' (अपि) शब्द पूर्वपद और उत्तरपद के सम्बन्ध को तथा कालभेद से एकाश्रयता या भिन्नाश्रयता सूचित करने के लिए है / जैसे—एक ही जीव किसी समय आत्मा रम्भी, किसी समय परारम्भी और किसी समय तदुभयारम्भी होता है। इसलिए अनारम्भी नहीं होता। भिन्नाश्रयता भिन्न-भिन्न जीवों को अपेक्षा से समझना चाहिए। जैसे कई (असंयती जीव) आत्मारम्भी, कई परारम्भी और कई उभयारम्भी भी होते हैं, इत्यादि / 2. 'जाव' पद के लिए देखिये सू. 7.1 का सूत्रपाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org