________________ 28 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 12.4 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में याहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? 12.4 उ.] हे गौतम ! (उन्हें) प्रतिसमय विरहरहित निरन्तर पाहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। (12.5) पुढविक्काइया कि प्राहारं पाहारेंति ? गोयमा ! दव्वनो जहा नेरइयाणं जाव निवाघाएणं छद्दिसि ; वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चाउद्दिसि सिय पंचदिसि / वण्णप्रो काल-नील-लोहित-हालिह-सुक्किलाणि। गंधो सुम्मिगंध 2, रसनो तित्त 5, फासपो कक्खड 8' / सेसं तहेव / नाणतं कतिभागं प्राहारेंति ? कइभागं फासादंति? गोयमा ! असंखिज्जइभागं पाहारेति, अणंतभागं फासादेति जाव ते णं तेसि पोग्गला कीससाए भुज्जो भुज्जो परिणमंति ? गोयमा ! फासिदियवेमायत्ताए भज्जो भुज्जो परिणमंति / सेसं जहा नेरइयाणं जाव चलियं कम्म निज्जरेंति, नो प्रचलियं कम्मं निज्जरेति / [12-5 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या (किसका) साहार करते हैं ? [12-5 उ.। गौतम ! वे द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं, इत्यादि (आहारविषयक) सब बातें नैरथिकों के समान जानना चाहिए। यावत् पृथ्वीकायिक जीव व्याघात न हो तो छही दिशामों से आहार लेते हैं। व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशानों से, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आहार लेते हैं / वर्ण की अपेक्षा से काला, नीला, पीला, लाल, हारिद्र (हल्दी जैसा) तथा शुक्ल (श्वेत) वर्ण के द्रव्यों का आहार करते हैं। गन्ध की अपेक्षा से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध, दोनों गन्ध वाले, रस की अपेक्षा से तिक्त आदि पांचों रस वाले, स्पर्श की अपेक्षा से कर्कश आदि पाठों स्पर्श वाले द्रव्यों का आहार करते हैं। शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए। सिर्फ भेद यह है--(प्र.) भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का स्पर्श-प्रास्वादन करते हैं ? (उ.) गौतम ! वे असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का स्पर्श प्रास्वादन करते हैं / यावत्-"हे भगवन् ! उनके द्वारा आहार किये हुए पुद्गल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ?" हे गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय के रूप में साता-असातारूप विविध प्रकार से बार-बार परिणत होते हैं। (यावत्) यहाँ से लेकर 'अचलित कर्म को निर्जरा नहीं करते'; यहाँ तक का अवशिष्ट सब वर्णन नैरयिकों के समान समझना चाहिए / (13-16) एवं जाव वणस्सइकाइयाणं / नवरं ठिती वष्णेयव्वा जा जस्स, उस्सासो वेमायाए। [13-16] इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय तक के जीवों के विषय में समझ लेना चाहिए / अन्तर केवल इतना है कि जिसकी जितनी स्थिति हो उसकी उतनी 1. '2' अंक से सुरभि दुरभि दो गन्ध का, '5' अंक से तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल (खट्टा) और मधुर, यों पांच रसों का, और '' अंक से----कर्कश, कोमल, भारी, हलका, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष आठ प्रकार के स्पर्श का ग्रहण करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org