________________ चैतन्यक्रिया के द्वारा वह दृश्य हैं / पुद्गलास्तिकाय मूतं होने से दृश्य है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम में किया गया प्रतिपादन वैज्ञानिक तथ्यों के अतीव निकट है। इसके अतिरिक्त जीव और पुद्गल के संयोग से दृष्टिगोचर होने वाली विविधता का जितना विशद विवरण प्रस्तुत प्रागम में है, उतना अन्य भारतीय दर्शन या धर्मग्रन्थों में नहीं मिलता। आधनिक शिक्षित एवं कतिपय वैज्ञानिक भगवतीसूत्र में उक्त स्वर्ग-नरक के वर्णन को कपोल-कल्पित कहते नहीं हिचकिचाते। उनका प्राक्षेप है कि 'भगवतीसूत्र का प्राधे से अधिक भाग स्वर्ग-नरक से सम्बन्धित वर्णनों से भरा हुआ है, इस ज्ञान का क्या महत्त्व या उपयोग है ?' परन्तु सर्वश-सर्वदर्शी भगवान महावीर ने तथा जैनतत्त्वज्ञों ने स्वर्ग-नरक को सर्वाधिक महत्त्व दिया है, इसके पीछे महान् गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। वह यह है कि यदि प्रात्मा को हम अविनाशी और शाश्वत सत्तात्मक मानते हैं तो हमें स्वर्ग-नरक को भी मानना होगा। स्वर्ग-नरक से सम्बन्धित वर्णन को निकाल दिया जाएगा तो आत्मबाद, कर्मवाद, लोकवाद, क्रियावाद एवं विमुक्तिवाद आदि सभी सिद्धान्त निराधार हो जाएंगे / स्वर्ग-नरक भी हमारे तिर्यग्लोकसम्बन्धी भूमण्डल के सदश ही क्रमशः ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के अंग हैं, अतिशय पुण्य और अतिशय पाप से युक्त प्रात्मा को अपने कृतकर्मों का फल भोगने के लिए स्वर्ग या नरक में गए बिना कोई चारा नहीं / अतः सर्वज्ञ-सर्वदशी पुरुष जगत् के अधिकांश भाग से युक्त क्षेत्र का वर्णन किये बिना कैसे रह सकते थे ? भगवतीसूत्र, अन्य जैनागमों की तरह न तो उपदेशात्मक ग्रन्थ है, और न केवल सैद्धान्तिक-ग्रन्थ है / इसे हम विश्लेषणात्मक ग्रन्थ कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में इसे सिद्धान्तों का अंकगणित कहा जा सकता है / प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्राइस्टिन का सापेक्षवाद का सिद्धान्त अंकगणित का ही तो चमत्कार है ! गणित ही जगत् के समस्त आविष्कारों का स्रोत है / अत: भगवती में सिद्धान्तों का बहुत ही गहनता एवं सूक्ष्मता से प्रतिपादन किया गया है। जिसे जनसिद्धान्त एवं कर्म ग्रन्थों या तत्त्वों का अच्छा ज्ञान नहीं है, उसके लिए भगवतीसूत्र में प्रतिपादित तात्त्विक विषयों की थाह पाना और उनका रसास्वादन करमा अत्यन्त कठिन है। इसके अतिरिक्त उस युग के इतिहास-भूगोल, समाज और संस्कृति, राजनीति और धर्म संस्थानों आदि का जो अनुपम विश्लेषण प्रस्तुत पागम में है, वह सर्व-साधारण पाठकों एवं रिसर्च स्कॉलरों के लिए अतीव महत्त्वपूर्ण है। छत्तीस हजार प्रश्नोत्तरों में प्राध्यात्मिक ज्ञान की छटा अद्वितीय है। प्रस्तत प्रागम से यह भी ज्ञात होता है कि उस यग में अनेक धर्मसम्प्रदाय होते हुए भी उन में साम्प्रदायिक रता इतनी नहीं होती थी। एक धर्मतीर्थ के परिणाजक, तापस और मुनि दसरे धर्मतीर्थ के विशिष्ट ज्ञानी या अनुभवी परिव्राजकों तापसों या मुनियों के पास नि:संकोच पहुँच जाते और उनसे ज्ञानचर्चा करते थे, और अगर कोई सत्य-तथ्य उपादेय होता तो वह उसे मुक्तभाव से स्वीकारते थे / प्रस्तुत प्रागम में वर्णित ऐसे अनेक प्रसंगों से उस युग की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का वास्तविक परिचय प्राप्त होता है। प्रस्तुत आगम में बणित अनेक सिद्धान्त आज विज्ञान ने भी स्वीकृत कर लिये हैं। विज्ञान समर्थित कुछ सिद्धान्त ये हैं--(१) जगत् का अनादित्व (2) बनस्पति में जीवत्व शक्ति, (3) पृथ्वीकाय एवं जलकाय में जीवत्वशक्ति की सम्भावना, (4) पुद्गल और उसका अनादित्व और (5) जीवत्वशक्ति के रूपक आदि / प्रस्तुत पागम में षद्रव्यात्मक लोक (जगत्) को अनादि एवं शाश्वत बताया गया है / आधुनिक विज्ञान भी जगत (जीव-अजीवात्मक) की कब सष्टि हुई ? इस विषय में जैनदर्शन के निकट पहुँच गया है। प्रसिद्ध जीवविज्ञानवेत्ता जे. बी. एस. हाल डेन का मन्तव्य है कि 'मेरे विचार में जगत को कोई आदि नहीं है।' [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org