________________ अनगार 343, 'जाणइ-पासइ' का रहस्य 343, चौभंगी क्यों? 343, बायुकाय द्वारा वक्रियकृत रूप-परिणमन एवं गमन सम्बन्धी प्ररूपणा 343 कठिन शब्दों की व्याख्या 345, बलाहक के रूप-परिणमन एवं गमन की प्ररूपणा 345, निष्कर्ष 347, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों की लेझ्यासम्बन्धी प्ररूपणा 473, एक निश्चित सिद्धान्त 348, तीन सूत्र क्यों ? 348, अन्तिम समय की लेश्या कौन-सी ? 348, लेश्या और उसके द्रव्य 349, भावितात्मा अनगार द्वारा अशक्य एवं शक्य विकुर्बणा शक्ति 349, बाह्य पुद्गलों का ग्रहण आवश्यक क्यों ? 350, विकुर्वणा से मायी की विराधना और अमायी की आराधना 351 मायी द्वारा विक्रिया 352, अमायी विक्रिया नहीं करता 352 / पंचम उद्देशक-'स्त्री' अथवा 'अनगार विकुर्वणा' (सूत्र 1.16) 353-361 भावितात्मा अनगार के द्वारा स्त्री आदि के रूपों की विकुर्वणा 356, कठिन शब्दों की व्याख्या 357, भावितात्मा अनगार द्वारा अश्वादि रूपों के अभियोग-सम्बन्धी प्ररूपण 357, अभियोग और वैक्रिय में अन्तर 359, मायी द्वारा विकूर्वणा और अमायी द्वारा अविकुर्वणा का फल 359, विकूर्वणा और अभियोग दोनों के प्रयोक्ता मायी 360, आभियोगिक अनगार का लक्षण 360, पंचम उद्देशक की संग्रहणी गाथाएँ 361 / छठा उद्देशक-नगर अथवा अनगार वीर्यलब्धि (सूत्र 1-15) 362-366 बीर्यलब्धि आदि के प्रभाव से मिथ्यादृष्टि अनगार का नगरारन्तर के रूपों को जानने-देखने की प्ररूपणा यादृष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और उसका दर्शन 394, निष्कर्ष 364, मायी, मिथ्यावृष्टि भावितात्मा अनगार की व्याख्या 364, लधित्रय का स्वरूप 364, कठिन शब्दों की व्याख्या 365. अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और उसका दर्शन 365, निष्कर्ष 367, भावितात्मा अनगार द्वारा ग्रामादि के रूपों का विकुर्वण-सामर्थ्य 367, चमरेन्द्र प्रादि इन्द्रों के आत्मरक्षक देवों की संख्या का निरूपण 368, प्रात्मरक्षक देव और उनकी संख्या 369 / सप्तम उद्देशक-लोकपाल (सूत्र 1-7) 370-381 शक्रन्द्र के लोकपाल और उनके विमानों के नाम 370, सोम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 370, कठिन शब्दों के अर्थ 373, सूर्य और चन्द्र की स्थिति 373, यम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 374, यमकायिक आदि की व्याख्या 376, अपत्य रूप से अभिमत पन्द्रह देवों की व्याख्या 376, वरुण लोकपाल के विमान-स्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 377, वैश्रमण लोकपाल के विमान-स्थान प्रादि से सम्बन्धित वर्णन 378, वैश्रमण देव के अन्य नाम 380, कठिन शब्दों की व्याख्या 381 / अष्टम उद्देशक--अधिपति (सूत्र 1-6) 382-386 भवनपति देवों के अधिपति के विषय में प्ररूपण 382. नागकुमार देवों के अधिपति के विषय में पच्छा 382, सुपर्णकुमार से स्तनितकुमार देवों के अधिपतियों के विषय में पालापक 383, आधिपत्य में तारतम्य 383, दक्षिण भवनपति देवों के इन्द्र और उनके प्रथम लोकपाल 383, सोमादि लोकपाल : वैदिक ग्रन्थों में 384, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवों पर आधिपत्य की प्ररूपणा 384, वाणव्यंतर देव और उनके अधिपति दो-दो इन्द्र 385, ज्योतिष्क देवों के इन्द्र 386, बैमानिक देवों के अधिपति –इन्द्र एवं लोकपाल 386 / [ 34 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org