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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक
समवाय-१७ सूत्र-४२
सत्तरह प्रकार का असंयम है । पृथ्वीकाय-असंयम, अप्काय-असंयम, तेजस्काय-असंयम, वायुकायअसंयम, वनस्पतिकाय-असंयम, द्वीन्द्रिय-असंयम, त्रीन्द्रिय-असंयम, चतुरिन्द्रिय-असंयम, पंचेन्द्रिय-असंयम, अजीवकाय-असंयम, प्रेक्षा-असंयम, उपेक्षा-असंयम, अपहत्य-असंयम, अप्रमार्जना-असंयम, मन:असंयम, वचनअसंयम, काय-असंयम ।। सत्तरह प्रकार का संयम कहा गया है । जैसे-पृथ्वीकाय-संयम, अप्काय-संयम, तेजस्काय-संयम,
सयम, द्वीन्द्रिय-संयम, त्रीन्द्रिय-संयम, चतुरिन्द्रिय-संयम, पंचेन्द्रिय-संयम, अजीवकाय-संयम, प्रेक्षा-संयम, उपेक्षा-संयम, अपहृत्य-संयम, प्रमार्जना-संयम, मनःसंयम, वचन-संयम, कायसंयम ।
मानुषोत्तर पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा कहा गया है। सभी वेलन्धर और अनुवेलन्धर नागराजों के आवास पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचे कहे गए हैं । लवणसमुद्र की सर्वाग्र शिखा सत्तरह हजार योजन ऊंची कही गई है।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमि भाग से कुछ अधिक सत्तरह हजार योजन ऊपर जाकर तत्पश्चात् चारण ऋद्धिधारी मुनियों की नन्दीश्वर, रुचक आदि द्वीपों में जाने के लिए तिरछी गति होती है।
असरेन्द्र असरराज चमर का तिगिंछिकट नामक उत्पात पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा कहा गया है। असुरेन्द्र बलि का रुचकेन्द्र नामक उत्पात पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा कहा गया है ।
मरण सत्तरह प्रकार का है । आवीचिमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिकमरण, वलन्मरण, वशार्तमरण, अन्तःशल्यमरण, तद्भवमरण, बालमरण, पंडितमरण, बालपंडितमरण, छद्मस्थमरण, केवलिमरण, वैहायसमरण, गृद्धस्पृष्ट या गृद्धपृष्ठमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण, पादपोपगमनमरण ।।
सूक्ष्मसम्पराय भाव में वर्तमान सूक्ष्मसम्पराय भगवान केवल सत्तरह कर्म-प्रकृतियों को बाँधते हैं । जैसेआभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, सातावेदनीय, यशस्कीर्तिनामकर्म, उच्चगोत्र, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ।
सहस्रार कल्प में देवों की जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोपम है । वहाँ जो देव, सामान, सुसामान, महासामान पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पौण्डरीक, महापौण्डरीक, शुक्र, महाशुक्र, सिंह, सिंहकान्त, सिंहबीज और भावित नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम की होती है । वे देव साढ़े आठ मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों के सत्तरह हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्तरह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
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समवाय-१७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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