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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक सूत्र - ३२२
१. प्रजापति, २. ब्रह्म, ३. सोम, ४. रुद्र, ५. शिव, ६. महाशिव, ७. अग्निशिख, ८. दशरथ और ९. वसुदेव । सूत्र- ३२३, ३२४
इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में नौ वासुदेवों की नौ माताएं हुई । जैसे-१. मृगावती, २. उमा, ३. पृथ्वी, ४. सीता, ५. अमृता, ६. लक्ष्मीमती, ७. शेषमती, ८. केकयी और ९. देवकी। सूत्र-३२५, ३२६
इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में नौ बलदेवों की नौ माताएं हुई । जैसे- १. भद्रा, २. सुभद्रा, ३. सुप्रभा, ४. सुदर्शना, ५. विजया, ६. वैजयन्ती, ७. जयन्ती, ८. अपराजिता और ९. रोहिणी । ये नौ बलदेवों की माताएं थीं। सूत्र - ३२७
इस जम्बूद्वीप में इस भारतवर्ष के इस अवसर्पिणीकाल में नौ दशारमंडल (बलदेव और वासुदेव समुदाय) हुए हैं। सूत्रकार उनका वर्णन करते हैं
वे सभी बलदेव और वासुदेव उत्तम कुल में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ पुरुष थे, तीर्थंकरादि शलाका-पुरुषों के मध्यवर्ती होने से मध्यम पुरुष थे, अथवा तीर्थंकरों के बल की अपेक्षा कम और सामान्य जनों के बल की अपेक्षा अधिक बलशाली होने से वे मध्यम पुरुष थे । अपने समय के पुरुषों के शौर्यादि गुणों की प्रधानता की अपेक्षा वे प्रधान पुरुष थे । मानसिक बल से सम्पन्न होने के कारण ओजस्वी थे । देदीप्यमान शरीरों के धारक होने से तेजस्वी थे । शारीरिक बल से संयुक्त होने के कारण वर्चस्वी थे, पराक्रम के द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त करने से यशस्वी थे । शरीर की छाया (प्रभा) से युक्त होने के कारण वे छायावन्त थे । शरीर की कान्ति से युक्त होने से कान्त थे, चन्द्र के समान सौम्य मुद्रा के धारक थे, सर्वजनों के वल्लभ होने से वे सुभग या सौभाग्यशाली थे । नेत्रों को अतिप्रिय होने से वे प्रियदर्शन थे।
समचतुरस्र संस्थान के धारक होने से वे सुरूप थे । शुभ स्वभाव होने से वे शुभशील थे । सुखपूर्वक सरलता से प्रत्येक जन उनसे मिल सकता था, अतः वे सुखाभिगम्य थे । सर्व जनों के नयनों के प्यारे थे । कभी नहीं थकने वाले अविच्छिन्न प्रवाहयुक्त बलशाली होने से वे ओधबली थे, अपने समय के सभी पुरुषों के बल का अति-क्रमण करने से अतिबली थे, और महान् प्रशस्त या श्रेष्ठ बलशाली होने से वे महाबली थे । निरुपक्रम आयुष्य के धारक होने से अनिहत अर्थात् दूसरे के द्वारा होने वाले घात या मरण से रहित थे, अथवा मल्ल-युद्ध में कोई उनको पराजित नहीं कर सकता था, इसी कारण वे अपराजित थे।
बड़े-बड़े युद्धों में शत्रुओं का मर्दन करने से वे शत्रु-मर्दन थे, सहस्त्रों शत्रुओं के मान का मथन करने वाले थे। आज्ञा या सेवा स्वीकार करने वालों पर द्रोह छोड़कर कृपा करने वाले थे । वे मात्सर्य-रहित थे, क्योंकि दूसरों के लेशमात्र भी गुणों के ग्राहक थे । मन, वचन, काय की स्थिर प्रवृत्ति के कारण वे अचपल (चपलता-रहित) थे । निष्कारण प्रचण्ड क्रोध से रहित थे, मंजुल वचनालाप और मृदु हास्य से युक्त थे।
गम्भीर, मधुर और परिपूर्ण सत्य वचन बोलते थे । अधीनता स्वीकार करने वालों पर वात्सल्य भाव रखते थे । शरण में आने वाले के रक्षक थे । वज्र, स्वस्तिक, चक्र आदि लक्षणों से और तिल, मशा आदि व्यंजनों के गुणों से संयुक्त थे । शरीर के मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण थे, वे जन्म-सात सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर के धारक थे । चन्द्र के सौम्य आकार वाले, कान्त और प्रियदर्शन थे । 'अमसृण' अर्थात् कर्तव्य-पालन में आलस्य-रहित थे अथवा 'अणर्षण' अर्थात् अपराध करने वालों पर भी क्षमाशील थे । उदंड पुरुषों पर प्रचंड दंडनीति के धारक थे। गम्भीर और दर्शनीय थे । बलदेव ताल वृक्ष के चिह्न वाली ध्वजा के और वासुदेव गरुड़ के चिह्न वाली ध्वजा के धारक थे । वे दशारमंडल कर्ण-पर्यन्त महाधनुषों को खींचने वाले, महासत्त्व (बल) के सागर थे।
रण-भूमि में उनके प्रहार का सामना करना अशक्य था । वे महान् धनुषों के धारक थे, पुरुषों में धीर-वीर थे, युद्धों में प्राप्त कीर्ति के धारक पुरुष थे, विशाल कुलों में उत्पन्न हुए थे, महारत्न वज्र (हीरा) को भी अंगूठे और तर्जनी दो अंगुलियों से चूर्ण कर देते थे । आधे भरतक्षेत्र के अर्थात् तीन खंड के स्वामी थे । सौम्यस्वभावी थे । राज
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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