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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक
समवाय-७८ सूत्र-१५७
देवेन्द्र देवराज शक्र का वैश्रमण नामक चौथा लोकपाल सुपर्णकुमारों और द्वीपकुमारों के अठहतर लाख आवासों (भवनों) का आधिपत्य, अग्रस्वामित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महाराजत्व, सेनानायकत्व करता और उनका शासन एवं प्रतिपालन करता है।
स्थविर अकम्पित अठहतर वर्ष की सर्व आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए।
उत्तरायण से लौटता हआ सर्य प्रथम मंडल से उनचालीसवे मण्डल तक एक महत के इकसठिए अठहत्तर भाग प्रमाण दिन को कम करके और रजनी क्षेत्र (रात्रि) को बढ़ाकर संचार करता है । इसी प्रकार दक्षिणायन से लौटता हुआ भी रात्रि और दिन के प्रमाण को घटाता और बढ़ाता हआ संचार करता है।
समवाय-७८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
समवाय-७९ सूत्र - १५८
वड़वामुख नामक महापातालकलश के अधस्तन चरमान्त भाग से इस रत्नप्रभा पृथ्वी का नीचला चरमान्त भाग उन्यासी हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार केतुक, यूपक और ईश्वर नामक महापातालों का अन्तर भी जानना चाहिए।
छठी पृथ्वी के बहमध्यदेशभाग से छठे धनोदधिवात का अधस्तल चरमान्त भाग उन्यासी हजार योजन के अन्तर-व्यवधान वाला कहा गया है । जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कुछ अधिक उन्यासी हजार योजन है।
समवाय-७९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
समवाय-८० सूत्र - १५९
श्रेयांस अर्हन् अस्सी धनुष ऊंचे थे । त्रिपृष्ठ वासुदेव अस्सी धनुष ऊंचे थे । अचल बलदेव अस्सी धनुष ऊंचे थे । त्रिपृष्ठ वासुदेव अस्सी लाख वर्ष महाराज पद पर आसीन रहे।
रत्नप्रभा पृथ्वी का तीसरा अब्बहुल कांड अस्सी हजार योजन मोटा कहा गया है। देवेन्द्र देवराज ईशान के अस्सी हजार सामानिक देव कहे गए है
जम्बूद्वीप के भीतर एक सौ अस्सी योजन भीतर प्रवेश कर सूर्य उत्तर दिशा को प्राप्त हो प्रथम बार (प्रथम मंडल में) उदित होता है।
समवाय-८० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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