Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 70
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय' समवाय/ सूत्रांक वाचनाएं हैं, संख्यात उपक्रम आदि अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेष्टक हैं, संख्यात श्लोक हैं और संख्यात नियुक्तियाँ हैं। गणिपिटक के द्वादशाङ्ग में अंग की अपेक्षा 'आचार' प्रथम अंग है । दसमें टो थम अंग है । इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं, पचासी उद्देशन-काल हैं, पचासी उद्देशन-काल हैं, पचासी समुद्देशन-काल हैं । पद-गणना की अपेक्षा इसमें अट्ठारह हजार पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, अत: उनके जानने रूप ज्ञान के द्वार भी अनन्त ही होते हैं । पर्याय भी अनन्त हैं, क्योंकि वस्तु के धर्म अनन्त हैं । त्रस जीव परित (सीमित) है । स्थावर जीव अनन्त हैं । सभी पदार्थ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत हैं, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कृत (अनित्य) हैं, सर्व पदार्थ सूत्रों में निबद्ध (ग्रथित) हैं और निकाचित हैं अर्थात् नियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि से प्रतिष्ठित हैं । इस आचाराङ्ग में जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रज्ञप्त भाव सामान्य रूप से कहे जाते हैं, विशेष रूप से प्ररूपण किये जाते हैं, हेतु, दृष्टान्त आदि के द्वारा दर्शाए जाते हैं, विशेष रूप से निर्दिष्ट किये जाते हैं और उपनय-निगमन के द्वारा उपदर्शित किये जाते हैं। आचाराङ्ग के अध्ययन से आत्मा वस्तु-स्वरूप का एवं आचार-धर्म का ज्ञाता होता है, गुणपर्यायों का विशिष्ट ज्ञाता होता है तथा अन्य मतों का भी विज्ञाता होता है । इस प्रकार आचार-गोचरी आदि चरणधर्मों की तथा पिण्डविशुद्धि आदि करणधर्मों की प्ररूपणा-इसमें संक्षेप से की जाती है, विस्तार से की जाती है, हेतु-दृष्टान्त से उसे दिखाया जाता है, विशेष रूप से निर्दिष्ट किया जाता और उपनय-निगमन के द्वारा उपदर्शित किया जाता है। सूत्र- २१६ सूत्रकृत क्या है-उसमें क्या वर्णन है? सूत्रकृत के द्वारा स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर-समय सूचित किये जाते हैं, स्वसमय और परसमय सूचित किये जाते हैं, जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, जीव और अजीव सूचित किये जाते हैं, लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोकअलोक सूचित किया जाता है। सूत्रकृत के द्वारा जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष तक के सभी पदार्थ सूचित किये जाते हैं । जो श्रमण अल्पकाल में ही प्रव्रजित हैं जिनकी बुद्धि खोटे समयों या सिद्धांतों के सूनने से मोहित है, जिनके हृदय तत्त्व के विषय में सन्देह के उत्पन्न होने से आन्दोलित हो रहे हैं और सहज बुद्धि का परिणमन संशय को प्राप्त हो रहा है, उनकी पाप उपार्जन करने वाली मलिन मति के दुर्गुणों के शोधन करने के लिए क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़संठ और विनयवादियों के बत्तीस, इन सब तीन सौ तिरेसठ अन्यवादियों का व्यूह अर्थात् निराकरण करके स्व-समय (जैन सिद्धान्त) स्थापित किया जाता है । नाना प्रकार के दृष्टान्तपूर्ण युक्तियुक्त वचनों के द्वारा पर-मत के वचनों की भलीभाँति से निःसारता दिखलाते हुए, तथा सत्पद-प्ररूपणा आदि अनेक अनुयोग द्वारों के द्वारा जीवादि तत्त्वों को विविध प्रक विस्तारानुगम कर परम सद्भावगुण-विशिष्ट, मोक्षमार्ग के अवतारक, सम्यग्दर्शनादि में प्राणियों के प्रवर्तक, सकलसूत्रअर्थसम्बन्धी दोषों से रहित, समस्त सद्गुणों से रहित, उदार, प्रगाढ़ अन्धकारमयी दुर्गों में दीपकस्वरूप, सिद्धि और सुगतिरूपी उत्तम गह के लिए सोपान के समान, प्रवादियों के विक्षोभ से रहित निष्प्रकम्प सूत्र और अर्थ सूचित किये जाते हैं। सूत्रकृताङ्ग की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियाँ संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं, और नियुक्तियाँ संख्यात हैं। अंगों की अपेक्षा यह दूसरा अंग है । इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं, तेईस अध्ययन हैं, तैंतीस उद्देशनकाल हैं, तैंतीस समुद्देशनकाल हैं, पद-परिमाण से छत्तीस हजार पद हैं, संख्यात अक्षर, अनन्तगम और अनन्त पर्याय हैं । परिमित त्रस और अनन्त स्थावर जीवों का तथा नित्य, अनित्य सूत्र में साक्षात कथित एवं नियुक्ति आदि द्वारा सिद्ध जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित पदार्थों का सामान्य-विशेष रूप में कथन किया गया है, नाम, स्थापना आदि भेद करके प्रज्ञापन किया है, नामादि के स्वरूप का कथन करके प्ररूपण किया गया है, उपमाओं द्वारा दर्शित किया गया है, हेतु दृष्टान्त आदि देकर निदर्शित किया गया है और उपनय-निगमन द्वारा उपदर्शित किए गए हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 70

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