Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 73
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय' समवाय/ सूत्रांक माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतपरिग्रह, तप-उपधान, दीक्षापर्याय, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक-गमन, सुकुल में पुनर्जन्म, पनः बोधिलाभ और अन्तक्रियाएं कही जाती हैं । इनकी प्ररूपणा की गई है, दर्शायी गई है, निदर्शित की गई है और उपदर्शित की गई है। ज्ञाताधर्मकथा में प्रव्रजित पुरुषों के विनय-करण-प्रधान, प्रवर जिन भगवान के शासन की संयम-परिज्ञा के पालन करने में जिनकी धृति (धीरता) मति (बुद्धि) और व्यवसाय (पुरुषार्थ) दुर्बल है, तपश्चरण का नियम और तप का परिपालन करने रूप रण (युद्ध) के दुर्धर भार को वहन करने से भग्न है-पराङ्मुख हो गए हैं, अत एव अत्यन्त अशक्त होकर संयम-पालन करने का संकल्प छोड़कर बैठ गए हैं, घोर परीषहों से पराजित हो चूके हैं इसलिए संयम के साथ प्रारम्भ किये गए मोक्ष-मार्ग के अवरुद्ध हो जाने से जो सिद्धालय के कारणभूत महामूल्य ज्ञानादि से पतित हैं, जो इन्द्रियों के तुच्छ विषय-सुखों की आशा के वश होकर रागादि दोषों से मूर्छित हो रहे हैं, चारित्र, ज्ञान, दर्शन स्वरूप यति-गुणों से उनके विविध प्रकारों के अभाव से जो सर्वथा निःसार और शून्य हैं के अपार दुःखों की और नरक, तिर्यंचादि नाना दुर्गतियों की भव-परम्परा से प्रपंच में पड़े हुए हैं, ऐसे पतित पुरुषों की कथाएं हैं। तथा जो धीर वीर हैं, परीषहों और कषायों की सेना को जीतने वाले हैं, धैर्य के धनी हैं, संयम में उत्साह रखने और बल-वीर्य के प्रकट करने में दृढ़ निश्चय वाले हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और समाधि-योग की जो आराधना करने वाले हैं, मिथ्यादर्शन, माया और निदानादि शल्यों से रहित होकर शुद्ध निर्दोष सिद्धालय के मार्ग की ओर अभिमुख हैं, ऐसे महापुरुषों की कथाएं इस अंग में कही गई हैं। तथा जो संयम-परिपालन कर देवलोक में उत्पन्न हो देव-भवनों और देव-विमानों के अनुपम सुखों को और दिव्य, महामूल्य, उत्तम भोग-उपभोगों को चिर-काल तक भोगकर कालक्रम के अनुसार वहाँ से च्युत हो पुनः यथा-योग्य मुक्ति के मार्ग को प्राप्त कर अन्तक्रिया के समाधिमरण के समय कर्म-वश विचलित हो गए हैं, उनको देवों और मनुष्यों के द्वारा धैर्य धारण कराने में कारणभूत, संबोधनों और अनुशासनों को, संयम के गुण और संयम से पतित होने के दोष-दर्शक दृष्टान्तों को, तथा प्रत्ययों को, अर्थात् बोधि के कारणभूत वाक्यों को सूनकर शुकपरि-व्राजक आदि लौकिक मुनिजन भी जरा-मरण का नाश करने वाले जिन-शासन में जिस प्रकार से स्थित हुए, उन्होंने जिस प्रकार से संयम की आराधना की, पुनः देवलोक में उत्पन्न हुए, वहाँ से आकर मनुष्य हो जिस प्रकार शाश्वत सुख को और सर्वदुःख विमोक्ष को प्राप्त किया, उनकी तथा इसी प्रकार के अन्य महापुरुषों की कथाएं इस अंग में विस्तार से कही गई हैं। ज्ञाताधर्मकथा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ़ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं । यह ज्ञाताधर्मकथा अंगरूप से छठा अंग है । इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं और उन्नीस अध्ययन हैं । वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गए हैं-चरित और कल्पित । धर्मकथाओं के दश वर्ग हैं । उनमें से एक-एक धर्मकथा में पाँच-पाँच सौ आख्यायिकाएं हैं, एक-एक आख्यायिका में पाँच-पाँच सौ उपाख्यायिकाएं हैं, एक-एक उपाख्यायिका में पाँच-पाँच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएं हैं । इस प्रकार ये सब पूर्वापर से गुणित होकर एक सौ इक्कीस करोड़, पचास लाख होती हैं । धर्मकथा विभाग के दश वर्ग कहे गए हैं । अतः उक्त राशि को दश से गुणित करने पर एक सौ पच्चीस करोड़ संख्या होती है। उसमें समान लक्षण वाली पुनरुक्त कथाओं को घटा देने पर साढ़े तीन करोड़ अपुनरुक्त कथाएं हैं। ज्ञाताधर्मकथा में उनतीस उद्देशन काल हैं, उनतीस समुद्देशन-काल हैं, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात हजार पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं । ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त भाव इस ज्ञाताधर्मकथा में कहे गए हैं, प्रज्ञापित किये गए हैं, निदर्शित किये गए हैं, और उपदर्शित किये गए हैं । इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है । इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा (कथाओं के माध्यम से) वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 73

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