Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 74
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय' समवाय/ सूत्रांक गया है । यह छठे ज्ञाताधर्मकथा अंग का परिचय है। सूत्र - २२३ उपासकदशा क्या है-उसमें क्या वर्णन है ? उपासकदशा में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, उपासकों के शीलव्रत, पाप-विरमण, गुण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास-प्रतिपत्ति, श्रुत-परिग्रह, तप-उपधान, ग्यारह प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकगमन, सुकुल-प्रत्यागमन, पुनःबोधिलाभ और अन्तक्रिया का कथन किया गया है, प्ररूपणा की गई है, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। उपासकदशांग में उपासकों (श्रावकों) की ऋद्धि-विशेष, परीषद् (परिवार), विस्तृत धर्म-श्रवण, बोधिलाभ, धर्माचार्य के समीप अभिगमन, सम्यक्त्व की विशुद्धता, व्रत की स्थिरता, मूलगुण और उत्तर गुणों का धारण, उनके अतिचार, स्थिति-विशेष (उपासक-पर्याय का काल-प्रमाण), प्रतिमाओं का ग्रहण, उनका पालन, उपसर्गों का सहन या निरुपसर्ग-परिपालन, अनेक प्रकार के तप, शील, व्रत, गुण, वैरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास और अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषमणा (सेवना) से आत्मा को यथाविधि भावित कर, बहुत से भक्तों (भक्तजनों) को अनशन तप से छेदन कर, उत्तम श्रेष्ठ देव-विमानों में उत्पन्न होकर, जिस प्रकार वे उन उत्तम विमानों में अनुपम उत्तम सुखों का अनुभव करते हैं, उन्हें भोगकर फिर आयु का क्षय होने पर च्युत होकर (मनुष्यों में उत्पन्न होकर) और जिनमत में बोधि को प्राप्त कर तथा उत्तम संयम धारण कर तमोरज (अज्ञान-अन्धकार रूप पाप-धूलि) के समूह से विप्रमुक्त होकर जिस प्रकार अक्षय शिव-सुख को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित होते हैं, इन सबका और इसी प्रकार के अन्य भी अर्थों का इस उपासकदशा में विस्तार से वर्णन है। उपासकदशा अंग में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ़ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं। यह उपासकदशा अंग की अपेक्षा सातवा अंग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन है, दश उद्देशनकाल है, दश समुद्देशन-काल है । पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं । ये सब शाश्वत, अशाश्वत, निबद्ध निकाचित जिनप्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे गए हैं, प्रज्ञापित किये गए हैं, प्ररूपित किये गए हैं, निदर्शित और उपदर्शित किये गए हैं । इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है । इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है । यह सातवे उपासकदशा अंग का विवरण है। सूत्र-२२४ अन्तकृद्दशा क्या है-इसमें क्या वर्णन है ? अन्तकृत्दशाओं में कर्मों का अन्त करने वाले महापुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, मातापिता समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतपरिग्रह, तप-उपधान, अनेक प्रकार की प्रतिमाएं, क्षमा, आर्जव, मार्दव, सत्य, शौच, सत्तरह प्रकार का संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, तप, त्याग का तथा समितियों और गुप्तियों का वर्णन है । अप्रमाद-योग और स्वाध्यायध्यान योग, इन दोनों उत्तम मुक्ति-साधनों का स्वरूप उत्तम संयम को प्राप्त करके परीषहों को सहन करने वालों को चार प्रकार के घातिकर्मों के क्षय होने पर जिस प्रकार केवलज्ञान का लाभ हुआ, जितने काल तक श्रमणपर्याय और केवलि-पर्याय का पालन किया, जिन मुनियों ने जहाँ पादपोपगमन अनशन किया, जो जहाँ जितने भक्तों का छेदन कर अन्तकृत् मुनिवर अज्ञानान्धकार रूप रज के पूँज से विप्रमुक्त हो अनुत्तर मोक्ष-सुख को प्राप्त हुए, उनका और इसी प्रकार के अन्य अनेक पदार्थों का इस अंग में विस्तार से प्ररूपण किया गया है। अन्तकृत्दशा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ़ और श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं।। ___ अंग की अपेक्षा यह आठवा अंग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध है । दश अध्ययन है, सात वर्ग है, दश उद्देशन मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 74

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