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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक सूत्र-२२९
प्रथम पूर्व में दश, दूसरे में चौदह, तीसरे में आठ, चौथे में अठारह, पाँचवे में बारह, छठे में दो, सातवे में सोलह, आठवे में तीस, नवे में बीस, दशवे विद्यानुप्रवाद में पन्द्रह । तथासूत्र-२३०
ग्यारहवे में बारह, बारहवे में तेरह, तेरहवे में तीस और चौदहवे में पच्चीस वस्तु नामक महाधिकार है। सूत्र-२३१
आदि के चार पूर्वो में क्रम से चार, बारह, आठ और दश चूलिकावस्तु नामक अधिकार हैं । शेष दश पूर्वो में चूलिका नामक अधिकार नहीं है । यह पूर्वगत है। सूत्र - २३२
वह अनुयोग क्या है-उसमें क्या वर्णन है ? अनुयोग दो प्रकार का कहा गया है । जैसे-मूलप्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग।
मूलप्रथमानुयोग में क्या है ? मूलप्रथमानुयोग में अरहन्त भगवंतों के पूर्वभव, देवलोकगमन, देवभव सम्बन्धी आयु, च्यवन, जन्म, जन्माभिषेक, राज्यवरश्री, शिबिका, प्रव्रज्या, तप, भक्त, केवलज्ञानोत्पत्ति, वर्ण, तीर्थ -प्रवर्तन, संहनन, संस्थान, शरीर-उच्चता, आयु, शिष्य, गण, गणधर, आर्या, प्रवर्तिनी, चतुर्विध संघ का परिमाण, केवलि-जिन, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यक् मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, वादी, अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले साधु, सिद्ध, पादपोपगत, जो जहाँ जितने भक्तों का छेदन कर उत्तम मुनिवर अन्तकृत हुए, तमोरज-समूह से विप्रमुक्त हुए, अनुत्तर सिद्धिपथ को प्राप्त हुए, इन महापुरुषों का, तथा इसी प्रकार के अन्य भाव मूलप्रथमानुयोग में कहे गए हैं, वर्णित किये गए हैं, प्रज्ञापित किये गए हैं, प्ररूपित किये गए हैं, निदर्शित किये गए हैं और उपदर्शित किये गए हैं । यह मूलप्रथमानुयोग हैं।
गंडिकानयोग में क्या है ? गंडिकानयोग अनेक प्रकार का है। जैसे-कलकरगंडिका, तीर्थंकरगंडिका, गणधरगंडिका, चक्रवर्तीगंडिका, दशारगंडिका, बलदेवगंडिका, वासुदेवगंडिका, हरिवंशगंडिका, भद्रबाहुगंडिका, तपःकर्मगंडिका, चित्रान्तरगंडिका, उत्सर्पिणीगंडिका, अवसर्पिणी गंडिका, देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक गतियों में गमन, तथा विविध योनियों में परिवर्तनानुयोग, इत्यादि गंडिकाएं इस गंडिकानुयोग में कही जाती हैं, प्रज्ञापित की जाती हैं, प्ररूपित की जाती हैं, निदर्शित की जाती हैं और उपदर्शित की जाती हैं । यह गंडिकानुयोग है।
___ यह चूलिका क्या है ? आदि के चार पूर्वो में चूलिका नामक अधिकार है । शेष दश पूर्वो में चूलिकाएं नहीं हैं। यह चूलिका है।
दृष्टिवाद की परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं । संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं, संख्यात श्लोक हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं।
यह दृष्टिवाद अंगरूप से बारहवा अंग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, चौदह पूर्व हैं, संख्यात वस्तु है, संख्यात चूलिका वस्तु है, संख्यात प्राभृत हैं, संख्यात प्राभृत-प्राभृत हैं, संख्यात प्राभृतिकाएं हैं, संख्यात प्राभृत-प्राभृतिकाएं हैं पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गए हैं । संख्यात अक्षर हैं । अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं । ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस दृष्टिवाद में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते और उपदर्शित किये जाते
इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है । इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तुस्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है । यह बारहवा दृष्टिवाद अंग है । यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक का वर्णन है। सूत्र - २३३
इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र रूप, अर्थरूप और उभयरूप आज्ञा का विराधन करके अर्थात् दुराग्रह के वशीभूत होकर अन्यथा सूत्रपाठ करके, अन्यथा अर्थकथन करके और अन्यथा सूत्रार्थ-उभय की प्ररूपणा
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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