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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक सुगन्धित लेप से उन भवनों की भित्तियों पर पाँचों अंगुलियों युक्त हस्ततल हैं । इसी प्रकार भवनों की सीढ़ियों पर भी गोशीर्षचन्दन और लालचन्दन के रस से पाँचों अंगुलियों के हस्ततल अंकित हैं । वे भवन कालागुरु, प्रधान कुन्दरु और तुरुष्क (लोभान) युक्त धूप के जलते रहने से मधमधायमान, सुगन्धित और सुन्दरता से अभिराम (मनोहर) हैं । वहाँ सुगन्धित अगरबत्तियाँ जल रही हैं।
वे भवन आकाश के समान स्वच्छ हैं, स्फटिक के समान कान्तियुक्त हैं, अत्यन्त चिकने हैं, घिसे हुए हैं, पालिश किये हुए हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, अन्धकार-रहित हैं, विशुद्ध हैं, प्रभा-युक्त हैं, मरीचियों (किरणों) से युक्त हैं, उद्योत (शीतल प्रकाश) से युक्त हैं, मन को प्रसन्न करने वाले हैं । दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं।
जिस प्रकार से असुरकुमारों के भवनों का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार नागकुमार आदि शेष भवनवासी देवों के भवनों का भी वर्णन जहाँ जैसा घटित और उपयुक्त हो, वैसा करना चाहिए । तथा ऊपर कही गई गाथाओं से जिसके जितने भवन बताये गए हैं, उनका वैसा ही वर्णन करना चाहिए। सूत्र - २३९
___ असुरकुमारों के चौंसठ लाख भवन हैं । नागकुमारों के चौरासी लाख भवन हैं । सुपर्णकुमारों के बहत्तर लाख भवन हैं । वायुकुमारों के छयानवे लाख भवन हैं । सूत्र-२४०
द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार, अग्निकुमार इन छहों युगलों के बहत्तर लाख भवन हैं। सूत्र - २४१
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के आवास कितने कहे गए हैं ?
गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात आवास कहे गए हैं । इसी प्रकार जलकायिक जीवों से लेकर यावत् मनुष्यों तक के जानना चाहिए।
भगवन् ! वाणव्यन्तरों के आवास कितने कहे गए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय कांड के एक सौ योजन ऊपर से अवगाहन कर और एक सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर मध्य के आठ सौ योजनों में वाणव्यन्तर देवों के तीरछे फैले हुए असंख्यात लाख भौमेयक नगरावास कहे गए हैं । वे भौमेयक नगर बाहर गोल और भीतर चौकोर हैं । इस प्रकार जैसा भवनवासी देवों के भवनों का वर्णन किया गया है, वैसा ही वर्णन वाणव्यन्तर देवों के भवनों का जानना चाहिए । केवल इतनी विशेषता है कि ये पताका-मालाओं से व्याप्त हैं । यावत् सुरम्य हैं, मन को प्रसन्न करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं।
भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमानावास कितने कहे गए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाकर एक सौ दश योजन बाहल्य वाले तीरछे ज्योतिष्क-विषयक
आकाशभाग में ज्योतिष्क देवों के असंख्यात विमानावास कहे गए हैं । वे अपने में से नीकलती हुई और सर्व दिशाओं में फैलती हुई प्रभा से उज्ज्वल हैं, अनेक प्रकार के मणि और रत्नों की चित्रकारी से युक्त हैं, वायु से उड़ती हुई विजय-वैजयन्ती पताकाओं से और छत्रातिछत्रों से युक्त हैं, गगनतल को स्पर्श करने वाले ऊंचे शिखर वाले हैं, उनकी जालियों के भीतर रत्न लगे हुए हैं । जैसे पंजर (प्रच्छादन) से तत्काल नीकाली वस्तु सश्रीक-चमचमाती है वैसे ही वे सश्रीक हैं। मणि और सुवर्ण की स्तूपिकाओं से युक्त हैं, विकसित शतपत्रों एवं पुण्डरीकों (श्वेत कमलों) से, तिलकों से, रत्नों के अर्धचन्द्राकार चित्रों से व्याप्त हैं, भीतर और बाहर अत्यन्त चिकने हैं, तपाये हुए स्वर्ण के समान वालुकामयी प्रस्तटों या प्रस्तारों वाले हैं । सुखद स्पर्श वाले हैं, शोभायुक्त हैं, मन को प्रसन्न करने वाले और दर्शनीय हैं
भगवन् ! वैमानिक देवों के कितने आवास कहे गए हैं ? गौतम ! इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारकाओं को उल्लंघन कर अनेक योजन, अनेक शत योजन, अनेक सहस्र योजन (अनेक शत-सहस्र योजन) अनेक कोटि योजन, अनेक कोटाकोटी योजन, और असंख्यात कोटाकोटी योजन ऊपर बहुत दूर तक आकाश का उल्लंघन कर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म,
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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