________________
आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार (गहन वन) में परिभ्रमण किया है, इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का विराधन करके वर्तमान काल में परीत (परिमित) जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार में परिभ्रमण कर रहे हैं और इसी द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का विराधन कर भविष्यकाल में अनन्त जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार में परिभ्रमण करेंगे।
इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का आराधन करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गति रूप संसार-कान्तार को पार किया है (मुक्ति को प्राप्त किया है) । वर्तमान काल में भी (परिमित) जीव इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का आराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार कर रहे हैं और भविष्यकाल में भी अनन्त जीव इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का आराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार करेंगे।
यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक भूतकाल में कभी नहीं था ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है । किन्तु भूतकाल में भी यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक था, वर्तमान काल में भी है और भविष्यकाल में भी रहेगा। क्योंकि यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना देने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय है, गंगा-सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीपादि के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है।
जिस प्रकार पाँच अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में कभी नहीं थे ऐसा नहीं, वर्तमान काल में कभी नहीं है ऐसा भी नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं है । किन्तु ये पाँचों अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में भी थे, वर्तमानकाल में भी हैं और भविष्यकाल में भी रहेंगे । अतएव ये ध्रुव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं और नित्य हैं।
इसी प्रकार यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक भूतकाल में कभी नहीं था ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है । किन्तु भूतकाल में भी यह था, वर्तमान काल में भी यह है और भविष्य काल में भी रहेगा । अतएव यह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है।
इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक में अनन्त भाव (जीवादि स्वरूप से सत् पदार्थ) और अनन्त अभाव (पररूप से असत् जीवादि वही पदार्थ) अनन्त हेतु, उनके प्रतिपक्षी अनन्त अहेतु; इसी प्रकार अनन्त कारण, अनन्त अकारण; अनन्त जीव, अनन्त अजीव; अनन्त भव्यसिद्धिक, अनन्त अभव्यसिद्धिक; अनन्त सिद्ध तथा अनन्त असिद्ध कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। सूत्र - २३४
दो राशियाँ कही गई हैं-जीवराशि और अजीवराशि । अजीवराशि दो प्रकार की कही गई है-रूपी अजीवराशि और अरूपी अजीवराशि ।
अरूपी अजीवराशि क्या है ? अरूपी अजीवराशि दश प्रकार की कही गई है। जैसे-धर्मास्तिकाय यावत् (धर्मास्तिकाय देश, धर्मास्तिकाय प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय देश, अधर्मास्तिकाय प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय देश, आकाशास्तिकाय प्रदेश) और अद्धासमय ।।
रूपी अजीवराशि अनेक प्रकार की कही गई है...यावत् प्रज्ञापना सूत्रानुसार ।
जीव-राशि क्या है ? जीव-राशि दो प्रकार की कही गई है-संसारसमापन्नक (संसारी जीव) और असंसारी समापन्नक (मक्त जीव) । इस प्रकार दोनों राशियों के भेद-प्रभेद प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार अनुत्तरोपपातिक सूत्र तक जानना चाहिए।
ये अनुत्तरोपपातिक देव क्या हैं ? अनुत्तरोपपातिक देव पाँच प्रकार के कहे गए हैं । जैसे-विजय-अनुत्तरोपपातिक, वैजयन्त-अनुत्तरोपपातिक, जयन्त-अनुत्तरोपपातिक, अपराजित-अनुत्तरोपपातिक और सर्वार्थसिद्धिक
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 80