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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक अनुत्तरोपपातिक । ये सब अनुत्तरोपपातिक संसार-समापन्नक जीवराशि हैं । यह सब पंचेन्द्रियसंसार-समापन्नकजीवराशि हैं।
नारक जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त ।
यहाँ पर भी (प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार) वैमानिक देवों तक अर्थात् नारक, असुरकुमार, स्थावरकाय, द्वीन्द्रिय आदि, मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक का सूत्र-दंडक कहना चाहिए।
(भगवन्) इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितना क्षेत्र अवगाहन कर कितने नारकावास कहे गए हैं ? गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन कर, तथा सबसे नीचे के एक हजार योजन क्षेत्र को छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख अठहतर हजार योजन वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के भाग में तीस लाख नारकावास हैं । वे नारकावास भीतर की ओर गोल और बाहर की ओर चौकोर हैं यावत् वे नरक अशुभ हैं और उन नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं । इसी प्रकार सातों ही पृथ्वीयों का वर्णन जिनमें जो युक्त हो, करना चाहिए। सूत्र - २३५
रत्नप्रभा पृथ्वी का बाहल्य (मोटाई) एक लाख अस्सी हजार योजन है। शर्करा पृथ्वी का बाहल्य १,३२,००० योजन है । वालुका पृथ्वी का बाहल्य एक लाख २८.००० योजन है। पंकप्रभा पृथ्वी का बाहल्य १,२०,००० योजन है । धूमप्रभा पृथ्वी का बाहल्य १,१८,००० योजन है। तमःप्रभा पृथ्वी का बाहल्य १.१६,००० योजन है
और महातमःप्रभा पृथ्वी का बाहल्य १.०८,००० योजन है । सूत्र-२३६
रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नारकावास हैं । शर्करा पृथ्वी में पच्चीस लाख नारकावास हैं । वालुका पृथ्वी में पन्द्रह लाख नारकावास हैं । पंकप्रभा पृथ्वी में दश लाख नारकावास हैं । धूमप्रभा पृथ्वी में तीन लाख नारकावास हैं । तमःप्रभा पृथ्वी में पाँच कम एक लाख नारकावास हैं । महातमः पृथ्वी में (केवल) पाँच अनुत्तर नारकावास हैं।
इसी प्रकार ऊपर की गाथाओं के अनुसार दूसरी पृथ्वी में, तीसरी पृथ्वी में, चौथी पृथ्वी में, पाँचवी पृथ्वी में, छठी पृथ्वी में और सातवी पृथ्वी में नरक बिलों-नारकावासों की संख्या कहनी चाहिए।
सातवी पृथ्वी में कितना क्षेत्र अवगाहन कर कितने नारकावास हैं ? गौतम ! एक लाख आठ हजार योजन बाहल्य वाली सातवी पृथ्वी में ऊपर से साढ़े बावन हजार योजन अवगाहन कर और नीचे भी साढ़े बावन हजार योजन छोड़कर मध्यवर्ती तीन हजार योजनों में सातवी पृथ्वी के नारकियों के पाँच अनुत्तर, बहुत विशाल महानरक कहे गए हैं । जैसे- काल, महाकाल, रोरुक, महारोरुक और पाँचवा अप्रतिष्ठान नामका नरक है । ये नरक वृत्त (गोल) और त्रयस्त्र हैं, अर्थात् मध्यवर्ती अप्रतिष्ठान नरक गोल आकार वाला है और शेष चारों दिशावर्ती चारों नरक त्रिकोण आकार वाले हैं । नीचे तल भाग में वे नरक क्षुरप्र (खुरपा) के आकार वाले हैं ।... यावत् ये नरक अशुभ हैं
और इन नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं। सूत्र - २३८
भगवन् ! असुरकुमारों के आवास (भवन) कितने कहे गए हैं ? गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्य वाली रत्नप्रभा पृथ्वी में ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन कर और नीचे एक हजार योजन छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख अठहत्तर हजार योजन में रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर असुरकुमारों के चौसठ लाख भवनावास कहे गए हैं । वे भवन बाहर गोल हैं, भीतर चौकोण हैं और नीचे कमल की कर्णिका के आकार से स्थित हैं । उनके चारों ओर खाई और परिखा खुदी हुई हैं जो बहुत गहरी हैं । खाई और परिखा के मध्य में पाल बंधी हुई है । तथा वे भवन अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, कपाट, तोरण, प्रतिद्वार, देशरूप भाग वाले हैं, यंत्र, मूसल, भुसुंढी, शतघ्नी, इन शस्त्रों से संयुक्त हैं | शत्रुओं की सेनाओं से अजेय हैं | अड़तालीस कोठों से रचित, अड़तालीस वन-मालाओं से शोभित हैं।
उनके भूमिभाग और भित्तियाँ उत्तम लेपों से लिपी और चिकनी हैं, गोशीर्षचन्दन और लालचन्दन के सरस
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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