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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र- ४, 'समवाय '
समवाय / सूत्रांक
सूत्र - २५१
भगवन् ! नारक अनन्तराहारी हैं ? ( उपपात क्षेत्र में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही क्या अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ?) तत्पश्चात् निर्वर्तनता ( शरीर की रचना) करते हैं ? तत्पश्चात् पर्यादानता (अंगप्रत्यंगों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण) करते हैं ? तत्पश्चात् परिणामनता (गृहीत पुद्गलों का शब्दादि विषय के रूप में उपभोग) करते हैं ? तत्पश्चात् परिचारणा (प्रतिचार) करते हैं ? और तत्पश्चात् विकुर्वणा (नाना प्रकार की विक्रिया) करते हैं ? (क्या यह सत्य है ?) हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । (यह कथन सत्य है ।) (यहाँ पर प्रज्ञापना सूत्रोक्त) आहार पद कह लेना चाहिए ।
सूत्र - २५२
भगवन् ! आयुकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! आयुकर्म का बन्ध छह प्रकार का कहा गया है । जैसे- जातिनामनिधत्तायुष्क, गतिनामनिधत्तायुष्क, स्थितिनामनिधत्तायुष्क, प्रदेशनामनिधत्तायुष्क, अनुभागनामनिधत्तायुष्क और अवगाहनानामनिधत्तायुष्क ।
भगवन् ! नारकों का आयुबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! छह प्रकार का कहा गया है । जैसे - जातिनामनिधत्तायुष्क, गतिनामनिधत्तायुष्क, स्थितिनामनिधत्तायुष्क, प्रदेशनामनिधत्तायुष्क, अनुभागनामनिधत्तायुष्क और अवगाहनानामनिधत्तायुष्क ।
इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी दंडकों में छह-छह प्रकार का आयुबन्ध जानना
चाहिए ।
भगवन् ! नरकगति में कितने विरह - ( अन्तर) काल के पश्चात् नारकों का उपपात (जन्म) कहा गया है ? गौतम! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से बारह मुहूर्त्त नारकों का विरहकाल कहा गया है। इसी प्रकार तिर्यग् गति, मनुष्यगति और देवगति का भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए ।
भगवन् ! सिद्धगति कितने काल तक विरहित रहती है ? अर्थात् कितने समय तक कोई भी जीव सिद्ध नहीं होता ? गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह मास सिद्धि प्राप्त करने वालों से विरहित रहती है । अर्थात् सिद्धगति का विरहकाल छह मास है । इसी प्रकार सिद्धगति को छोड़कर शेष सब जीवों की उद्वर्तना ( मरण) का विरह भी जानना ।
भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक कितने विरह-काल के बाद उपपात वाले कहे गए हैं ? उक्त प्रश्न के उत्तर में यहाँ पर (प्रज्ञापनासूत्रोक्त) उपपात-दंडक कहना चाहिए ।
इसी प्रकार उद्वर्तना-दंडक भी कहना चाहिए ।
भगवन् ! नारक जीव जातिनामनिधत्तायुष्क कर्म का कितने आकर्षों से बन्ध करते हैं ? गौतम ! स्यात् (कदाचित्) एक आकर्ष से, स्यात् दो आकर्षों से, स्यात् तीन आकर्षों से, स्यात् चार आकर्षों से, स्यात् पाँच आकर्षों से, स्यात् छह आकर्षों से, स्यात् सात आकर्षों से और स्यात् आठ आकर्षों से जातिनामनिधत्तायुष्क कर्म का बन्ध करते हैं । किन्तु नौ आकर्षों से बन्ध नहीं करते हैं । इसी प्रकार शेष आयुष्क कर्मों का बन्ध जानना चाहिए ।
इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिक कल्प तक सभी दंडकों में आयुबन्ध के आकर्ष जानना चाहिए
सूत्र - २५३
भगवन् ! संहनन कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! संहनन छह प्रकार का कहा गया है । जैसेवज्रर्षभ नाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलिका संहनन और सेवा संहनन ।
भगवन् ! नारक किस संहनन वाले कहे गए हैं ? गौतम ! नारकों के छहों संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता है । वे असंहननी होते हैं, क्योंकि उनके शरीर में हड्डी नहीं है, नहीं शिराएं (धमनियाँ) हैं और नहीं स्नायु (आंते) हैं । वहाँ जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अनादेय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम और अमनोभिराम हैं, उनसे नारकों का शरीर संहनन-रहित ही बनता है ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( समवाय)" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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