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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक प्रत्यागमन पुनः बोधिलाभ और उनकी अन्तक्रियाएं कही गई हैं।
दुःख विपाक के प्राणातिपात, असत्य वचन, स्तेय, पर-दार-मैथुन, ससंगता (परिग्रह-संचय), महातीव्र कषाय, इन्द्रिय-विषय-सेवन, प्रमाद, पाप-प्रयोग और अशुभ अध्यवसानों (परिणामों) से संचित पापकर्मों के उन पापरूप अनुभाग-फल-विपाकों का वर्णन किया गया है जिन्हें नरकगति और तिर्यग्-योनि में बहुत प्रकार के सैकड़ों संकटों की परम्परा में पड़कर भोगना पड़ता है।
वहाँ से नीकलकर मनुष्य भव में आने पर भी जीवों को पाप-कर्मों के शेष रहने से अनेक पापरूप अशुभफल-विपाक भोगने पड़ते हैं, जैसे-वध (दण्ड आदि से ताड़न), वृषण-विनाश (नपुंसकीकरण), नासा-कर्तन, कर्णकर्तन, ओष्ठ-छेदन, अंगुष्ठ-छेदन, हस्त-कर्तन, चरण-छेदन, नख-छेदन, जिह्वा-छेदन, अंजन-दाह (उष्ण लोहशलाका से आँखों को आंजना-फोड़ना), कटाग्निदाह (बाँस से बनी चटाई से शरीर को सर्व ओर से लपेटकर जलाना), हाथी के पैरों के नीचे डालकर शरीर को कुचलवाना, फरसे आदि से शरीर को फाड़ना, रस्सियों से बाँधकर वृक्षों पर लटकाना, त्रिशूल-लता, लकुट (मुंठ वाला डंडा) और लकड़ी से शरीर को भग्न करना, तपे हुए कड़कड़ाते रांगा, सीसा एवं तेल से शरीर का अभिसिंचन करना, कुम्भी (लोहभठ्ठी) में पकाना, शीतकाल में शरीर पर कंपकंपी पैदा करने वाला अतिशीतल जल डालना, काष्ठ आदि में पैर फँसाकर स्थिर (दृढ़) बाँधना, भाले आदि शस्त्रों से छेदन-भेदन करना, वर्द्धकर्तन (शरीर की खाल उधेड़ना) अति भयकारक कर-प्रदीपन (वस्त्र लपेटकर और शरीर पर तेल डालकर दोनों हाथों में अग्नि लगाना) आदि अति दारुण, अनुपम दुःख भोगने पड़ते हैं । अनेक भव-परम्परा में बंधे हुए पापी जीव पाप कर्मरूपी वल्ली के दुःख-रूप फलों को भोगे बिना नहीं छूटते हैं । क्योंकि कर्मों के फलों को भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं मिलता । हाँ, चित्त-समाधिरूप धैर्य के साथ जिन्होंने अपनी कमर कस ली है उनके तप द्वारा उन पापकर्मों का भी शोधन हो जाता है।
__ अब सुख-विपाकों का वर्णन किया जाता है जो शील (ब्रह्मचर्य या समाधि), संयम, नियम (अभिग्रहविशेष), गुण (मूलगुण और उत्तरगुण) और तप (अन्तरंग-बहिरंग) के अनुष्ठान में संलग्न हैं, जो अपने आचार का भली भाँति से पालन करते हैं, ऐसे साधुजनों में अनेक प्रकार की अनुकम्पा का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति तीनों ही कालों में विशुद्ध बुद्धि रखते हैं अर्थात् यतिजनों को आहार दूँगा, यह विचार करके जो हर्षानुभव करते हैं, देते समय और देने के पश्चात् भी हर्ष मानते हैं, उनको अति सावधान मन से हीतकारक, सुखकारक, निःश्रेयसकारक उत्तम शभ परिणामों से प्रयोग-शुद्ध (उदगमादि दोषों से रहित) भक्त-पान देते हैं, वे मनुष्य जिस प्रकार पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं, बोधि-लाभ को प्राप्त होते हैं और नर, नारक, तिर्यंच एवं देवगति-गमन सम्बन्धी अनेक परावर्तनों को परीत (सीमित-अल्प) करते हैं, तथा जो अरति, भय, विस्मय, शोक और मिथ्यात्वरूप शैल (पर्वत) से संकट (संकीर्ण) हैं, गहन अज्ञान-अन्धकार रूप कीचड़ से परिपूर्ण होने से जिसका पार उतरना अति कठिन है, जिसका चक्रवाल (जल-परिमंडल) जरा, मरण योनिरूप मगरमच्छों से क्षोभित हो रहा है, जो अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायरूप श्वापदों (खुंखार हिंसक प्राणियों) से अति प्रचण्ड अत एव भयंकर हैं।
ऐसे अनादि अनन्त इस संसार-सागर को वे जिस प्रकार पार करते हैं, और जिस प्रकार देवगणों में आयु बाँधते-देवायु का बंध करते हैं, तथा जिस प्रकार सुरगणों के अनुपम विमानोत्पन्न सुखों का अनुभव करते हैं, तत्पश्चात् कालान्तर में वहाँ से च्युत होकर इसी मनुष्यलोक में आकर दीर्घ आयु, परिपूर्ण शरीर, उत्तम रूप, जाति कुल में जन्म लेकर आरोग्य, बुद्धि, मेघा-विशेष से सम्पन्न होते हैं, मित्रजन, स्वजन, धन, धान्य और वैभव से समृद्ध, एवं सारभूत सुखसम्पदा के समूह से संयुक्त होकर बहुत प्रकार के कामभोग-जनित, सुख-विपाक से प्राप्त उत्तम सुखों की अनुपरत (अविच्छिन्न) परम्परा से परिपूर्ण रहते हुए सुखों को भोगते हैं, ऐसे पुण्यशाली जीवों का इस सुख-विपाक में वर्णन किया गया है।
कार अशभ और शभ कर्मों के बहत प्रकार के विपाक (फल) इस विपाकसत्र में भगवान जिनेन्द्र देव ने संसारी जनों को संवेग उत्पन्न करने के लिए कहे हैं । इसी प्रकार से अन्य भी बहत प्रकार की अर्थ-प्ररूपणा विस्तार से इस अंग में की गई है।
विपाकसूत्र की परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ़ हैं,
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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