Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 75
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र- ४, 'समवाय ' समवाय / सूत्रांक काल है, दश समुद्देशन काल है, पदगणना की अपेक्षा संख्यात हजार पद है । संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं । ये सभी शाश्वत, अशाश्वत निबद्ध निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग के द्वारा कहे जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं । इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह आठवे अन्तकृत्दशा अंग का परिचय है । सूत्र - २२५ अनुत्तरोपपातिकदशा क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ? अनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले महा अनगारों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजगण, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धियाँ, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या श्रुत का परिग्रहण, तप उपधान, पर्याय, प्रतिमा, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, अनुत्तर विमानों में उत्पाद, फिर सुकुल में जन्म, पुनः बोधि-लाभ और अन्तक्रियाएं कही गई हैं, उनकी प्ररूपणा की गई हैं, उनका दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है। अनुत्तरोपपातिकदशा में परम मंगलकारी, जगत्-हीतकारी तीर्थंकरों के समवसरण और बहुत प्रकार के जिन-अतिशयों का वर्णन है । तथा जो श्रमणजनों में प्रवरगन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ हैं, स्थिर यश वाले हैं, परीषहसेना रूपी शत्रु-बल के मर्दन करने वाले हैं, तप से दीप्त हैं, जो चारित्र, ज्ञान, सम्यक्त्वरूप सार वाले अनेक प्रकार के विशाल प्रशस्त गुणों से संयुक्त हैं, ऐसे अनगार महर्षियों के अनगार-गुणों का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन है। अतीव, श्रेष्ठ तपोविशेष से और विशिष्ट ज्ञान- योग से युक्त हैं, जिन्होंने जगत् हीतकारी भगवान तीर्थंकरों की जैसी परम आश्चर्यकारिणी ऋद्धियों की विशेषताओं को और देव, असुर, मनुष्यों की सभाओं के प्रादुर्भाव को देखा है, वे महापुरुष जिस प्रकार जिनवर के समीप जाकर उनकी जिस प्रकार से उपासना करते हैं, तथा अमर, नर, सुरगणों के लोकगुरु वे जिनवर जिस प्रकार से उनको धर्म का उपदेश देते हैं, वे क्षीणकर्मा महापुरुष उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म को सूनकर के अपने समस्त कामभोगों से और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर जिस प्रकार से उदार धर्म को और विविध प्रकार से संयम और तप को स्वीकार करते हैं । तथा जिस प्रकार से बहुत वर्षों तक उनका आचरण करके, ज्ञान, दर्शन, चारित्र योग की आराधना कर जिन-वचन के अनुगत (अनुकूल) पूजित धर्म का दूसरे भव्य जीवों को उपदेश देकर और अपने शिष्यों को अध्ययन करवा तथा जिनवरों की हृदय से आराधना कर वे उत्तम मुनिवर जहाँ पर जितने भक्तों का अनशन के द्वारा छेदन कर, समाधि को प्राप्त कर और उत्तम ध्यान योग से युक्त होते हुए जिस प्रकार से अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ जैसे अनुपम विषय सौख्य को भोगते हैं, उस सब का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वे जिस प्रकार से संयम को धारण कर अन्तक्रिया करेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे, इन सबका तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थों का विस्तार से इस अंग में वर्णन किया गया है । अनुत्तरोपपातिकदशा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ़ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात निर्युक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं । I यह अनुत्तरोपपातिकदशा अंगरूप से नौवा अंग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, तीन वर्ग हैं, दश उद्देशन काल हैं, दश समुद्देशन काल हैं, तथा पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गए हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परिमित त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं । ये सब शाश्वत कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह नौवें अनुत्तरोपपातिकदशा अंग का परिचय है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (समवाय) आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद" " Page 75

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96