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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक समवाय-६९ सूत्र-१४७
समयक्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र या अढाई द्वीप) में मन्दर पर्वत को छोड़कर उनहत्तर वर्ष और वर्षधर पर्वत कहे गए हैं जैसे-पैंतीस वर्ष (क्षेत्र), तीस वर्षधर (पर्वत) और चार इषुकार पर्वत ।
मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गौतम द्वीप का पश्चिम चरमान्त भाग उनहत्तर हजार योजन अन्तर वाला बिना किसी व्यवधान के कहा गया है। मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ उनहत्तर हैं।
समवाय-६९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
समवाय-७० सूत्र-१४८
श्रमण भगवान महावीर चतुर्मास प्रमाण वर्षाकाल के बीस दिन अधिक एक मास (पचास दिन) व्यतीत हो जाने पर और सत्तर दिनों के शेष रहने पर वर्षावास करते थे।
पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् परिपूर्ण सत्तर वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए।
वासुपूज्य अर्हत् सत्तर धनुष ऊंचे थे ।
मोहनीय कर्म की अबाधाकाल से रहित सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमाण कर्मस्थिति और कर्म-निषेक कहे गए हैं। देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र के सामानिक देव सत्तर हजार कहे गए हैं।
समवाय-७० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
समवाय-७१ सूत्र - १४९
(पंच सांवत्सरिक युग के) चतुर्थ चन्द्र संवत्सर की हेमन्त ऋतु के इकहत्तर रात्रि-दिन व्यतीत होने पर सूर्य सबसे बाहरी मंडल (चार क्षेत्र) से आवृत्ति करता है । अर्थात् दक्षिणायन से उत्तरायण की और गमन करना प्रारम्भ करता है।
वीर्यप्रवाद पूर्व के इकहत्तर प्राभृत (अधिकार) कहे गए हैं।
अजित अर्हन् इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हए । इसी प्रकार चातुरन्त चक्रवर्ती सगर राजा भी इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए।
समवाय-७१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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