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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक
समवाय-३४ सूत्र - ११०
बुद्धों के अर्थात् तीर्थंकर भगवंतों के चौंतीस अतिशय कहे गए हैं । जैसे
१. नख और केश आदि का नहीं बढ़ना । २. रोगादि से रहित, मल रहित निर्मल देहलता होना । ३. रक्त और माँस का गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण होना । ४. पद्मकमल के समान सुगन्धित उच्छ्वास निःश्वास होना । ५. माँस-चक्षु से अदृश्य प्रच्छन्न आहार और नीहार होना । ६. आकाश में धर्मचक्र का चलना । ७. आकाश में तीन छत्रों का घूमते हुए रहना । ८. आकाश में उत्तम श्वेत चामरों का ढोला जाना । ९. आकाश के समान निर्मल स्फटिक मय पादपीठयुक्त सिंहासन का होना।
१०. आकाश में हजार लघु पताकाओं से युक्त इन्द्रध्वज का आगे-आगे चलना । ११. जहाँ-जहाँ भी अरहंत भगवंत ठहरते या बैठते हैं, वहाँ-वहाँ यक्ष देवों के द्वारा पत्र, पुष्प, पल्लवों से व्याप्त, छत्र, ध्वजा, घंटा और पताका से युक्त श्रेष्ठ अशोक वृक्ष का निर्मित होना । १२. मस्तक के कुछ पीछे तेजमंडल (भामंडल) का होना, जो अन्धकार में भी दशों दिशाओं को प्रकाशित करता है । १३. जहाँ भी तीर्थंकरों का विहार हो, उस भूमिभाग का बहुसम और रमणीय होना । १४. विहार-स्थल के काँटों का अधोमुख हो जाना । १५. सभी ऋतुओं का शरीर के अनुकूल सुखद स्पर्श वाली होना । १६. जहाँ तीर्थंकर बिराजते हैं, वहाँ की एक योजन भूमि का शीतल, सुखस्पर्शयुक्त सुगन्धित पवन से सर्व ओर संप्रमार्जन होना । १७. मन्द, सुगन्धित जल-बिन्दुओं से मेघ के द्वारा भूमि का धूलि-रहित होना।
१८. जल और स्थल में खिलने वाले पाँच वर्ण के पुष्पों से घुटने प्रमाण भूमिभाग के पुष्पोपचार होना, अर्थात् आच्छादित किया जाना । १९. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अभाव होना । २०. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का प्रादुर्भाव होना । २१. धर्मोपदेश के समय हृदय को प्रिय लगने वाला और एक योजन तक फैलने वाला स्वर होना । २२. अर्धमागधी भाषा में भगवान का धर्मोपदेश देना । २३. वह अर्धमागधी भाषा बोली जाती हुई सभी आर्य अनार्य पुरुषों के लिए तथा द्विपद पक्षी और चतुष्पद मृग, पशु आदि जानवरों के लिए और पेट के बल रेंगने वाले सादि के लिए अपनी-अपनी हीतकर, शिवकर, सुखद भाषारूप से परिणत हो जाती है । २४. पूर्वबद्ध वैर वाले भी (मनुष्य) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व
और महोरग भी अरहंतों के पादमूल में प्रशान्त चित्त होकर हर्षित मन से धर्म श्रवण करते हैं । २५. अन्य तीर्थिक प्रावचनिक पुरुष भी आकर भगवान की वन्दना करते हैं।
२६. वे वादी लोग भी अरहंत के पादमूल में वचन-रहित (निरुत्तर) हो जाते हैं । २७. जहाँ-जहाँ से भी अरहंत भगवंत विहार करते हैं, वहाँ-वहाँ पच्चीस योजन तक ईति-भीति नहीं होती है । २८. मनुष्यों को मारने वाली मारी (प्लेग आदि भयंकर बीमारी) नहीं होती है । २९. स्वचक्र (अपने राज्य की सेना) का भय नहीं होता। ३०. परचक्र (शत्रु की सेना) का भय नहीं होता । ३१. अतिवृष्टि (भारी जलवर्षा) नहीं होती । ३२. अनावृष्टि नहीं होती । ३३. दुभिक्ष (दुष्काल) नहीं होता । ३४. भगवान के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियाँ भी शीघ्र ही शान्त हो जाती है और रक्त-वर्षा आदि उत्पात नहीं होते हैं।
जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र चौंतीस कहे गए हैं । जैसे-महाविदेह में बत्तीस, भारत क्षेत्र एक और ऐरवत क्षेत्र एक । (इसी प्रकार) जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चौंतीस दीर्घ वैताढ्य कहे गए हैं।
जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्कृष्ट रूप से चौंतीस तीर्थंकर (एक साथ) उत्पन्न होते हैं।
असुरेन्द्र असुरराज चमर के चौंतीस लाख भवनावास कहे गए हैं । पहली, पाँचवी, छठी और सातवी इन चार पृथ्वीयों में चौंतीस लाख नारकावास कहे गए हैं।
समवाय-३४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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