Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 45
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय' समवाय/ सूत्रांक समवाय-३५ सूत्र - १११ पैंतीस सत्यवचन के अतिशय कहे गए हैं। कुन्थु अर्हन् पैंतीस धनुष ऊंचे थे । दत्त वासुदेव पैंतीस धनुष ऊंचे थे । नन्दन बलदेव पैंतीस धनुष ऊंचे थे। सौधर्म कल्प में सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ में नीचे और ऊपर साढ़े बारह-साढ़े बारह योजन छोड़ कर मध्यवर्ती पैंतीस योजनों में, वज्रमय, गोल, वर्तुलाकार पेटियों में जिनों की मनुष्यलोक में मुक्त हए तीर्थंकरों की अस्थियाँ रखी हुई हैं। दूसरी और चौथी पृथ्वीयों में (दोनों को मिलाकर) पैंतीस लाख नारकावास हैं। समवाय-३५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण समवाय-३६ सूत्र - ११२ उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीस अध्ययन हैं । जैसे-विनयश्रुत, परीषह, चातुरङ्गीय, असंस्कृत, अकाममरणीय, क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय, औरभ्रीय, कापिलीय, नमिप्रव्रज्या, द्रुमपत्रक, बहुश्रुतपूजा, हरिकेशीय, चित्तसंभूतीय, इषुकारीय, सभिक्षु, समाधिस्थान, पापश्रमणीय, संयतीय, मृगापुत्रीय, अनाथप्रव्रज्या, समुद्रपालीय, रथनेमीय, गौतमकेशीय, समिति, यज्ञीय, सामाचारी, खलुंकीय, मोक्षमार्गगति, अप्रमाद, तपोमार्ग, चरणविधि, प्रमादस्थान, कर्मप्रकृति, लेश्या, अनागारमार्ग और जीवाजीवविभक्ति । असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा सभा छत्तीस योजन ऊंची है। श्रमण भगवान महावीर के संघ में छत्तीस हजार आर्यिकाएं थीं। चैत्र और आसोज मास में सूर्य एक बार छत्तीस अंगुल की पौरुषी छाया करता है। समवाय-३६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण समवाय-३७ सूत्र - ११३ कुन्थु अर्हन के सैंतीस गण और सैंतीस गणधर थे । हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र की जीवाएं सैंतीस हजार छह सौ चौहतर योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से कुछ कम सोलह भाग लम्बी कही गई हैं। क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति नामक कालिकश्रुत के प्रथम वर्ग में सैंतीस उद्देशनकाल हैं । कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन सूर्य सैंतीस अंगुल की पौरुषी छाया करता हुआ संचार करता है। समवाय-३७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण समवाय-३८ सूत्र-११४ पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् के संघ में अड़तीस हजार आर्यिकाओं की उत्कृष्ट आर्यिकासम्पदा थी। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों की जीवाओं का घनःपृष्ठ अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दश भाग से कुछ कम परिक्षेप वाला कहा गया है। जहाँ सूर्य अस्त होता है, उस पर्वत राज मेरु का दूसरा कांड अड़तीस हजार योजन ऊंचा है। क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति नामक कालिक श्रुत के द्वीतिय वर्ग में अड़तीस उद्देशन काल कहे गए हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 45

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