________________
आगम सूत्र ४, अंगसूत्र- ४, 'समवाय '
सूत्र - १३६
पहली, दूसरी और पाँचवी इन तीन पृथ्वीयों में अट्ठावन लाख नारकावास कहे गए हैं ।
ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम, अन्तराय इन पाँच कर्मप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियाँ अट्ठावन कही गई हैं गोस्तुभ आवास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से वड़वामुख महापाताल के बहुमध्य देश-भाग का अन्तर अट्ठावन हजार योजन बिना किसी बाधा के कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में जानना चाहिए ।
समवाय- ५८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
समवाय- ५८
सूत्र - १३८
सूत्र - १३७
चंद्रसंवत्सर (चन्द्रमा की गति की अपेक्षा से माने जाने वाले संवत्सर) की एक एक ऋतु रात-दिन की गणना से उनसठ रात्रि - दिन की कही गई है ।
समवाय- ५९
संभव अर्हन् उनसठ हजार पूर्व वर्ष अगार के मध्य (गृहस्थावस्था में) रहकर मुण्डित हो अगार त्यागकर अनगारिता में प्रव्रजित हुए ।
मल्लि अर्हन् के संघ में उनसठ सौ (५९००) अवधिज्ञानी थे ।
समवाय-५९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
सूत्र
- १३९
समवाय ६०
सूर्य एक एक मण्डल को साठ-साठ मुहूर्तों से पूर्ण करता है ।
लवणसमुद्र के अग्रोदक (१६,००० ऊंची वेला के ऊपर वाले जल) को साठ हजार नागराज धारण करते हैं विमल अर्हन् साठ धनुष ऊंचे थे I
बलि वैरोचनेन्द्र के साठ हजार सामानिक देव कहे गए हैं । ब्रह्म देवेन्द्र देवराज के साठ हजार सामानिक देव कहे गए हैं ।
सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में साठ लाख विमानावास कहे गए हैं ।
समवाय - ६० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
समवाय / सूत्रांक
समवाय- ६१
पंचसंवत्सर वाले युग के ऋतु-मासों से गिनने पर इकसठ ऋतु मास होते हैं ।
मन्दर पर्वत का प्रथम काण्ड इकसठ हजार योजन ऊंचा कहा गया है ।
चन्द्रमंडल विमान एक योजन के इकसठ भागों से विभाजित करने पर पूरे छप्पन भाग प्रमाण सम-अंश कहा गया है । इसी प्रकार सूर्य भी एक योजन के इकसठ भागों से विभाजित करने पर पूरे अड़तालीस भाग प्रमाण सम-अंश कहा गया है ।
समवाय ६१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( समवाय)" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
Page 52