________________
आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक
समवाय-२१ सूत्र- ५१
इक्कीस शबल हैं (जो दोष रूप क्रिया-विशेषों के द्वारा अपने चारित्र को शबल कर्बुरित, मलिन या धब्बों से दूषित करते हैं) १. हस्त-मैथुन करने वाला शबल, २. स्त्री आदि के साथ मैथुन करने वाला शबल, ३. रात में भोजन करने वाला शबल, ४. आधाकर्मिक भोजन को सेवन करने वाला शबल, ५. सागारिक का भोजन-पिंड ग्रहण करने वाला शबल, ६. औद्देशिक, बाजार से क्रीत और अन्यत्र से लाकर दिये गए भोजन को खाने वाला शबल, ७. बार-बार प्रत्याख्यान कर पुनः उसी वस्तु को सेवन करने वाला शबल, ८. छह मास के भीतर एक या दूसरे गण में जाने वाला शबल, ९. एक मास के भीतर तीन बार नाभिप्रमाण जल में प्रवेश करने वाला शबल, १०. एक मास के भीतर तीन बार मायास्थान को सेवन करने वाला शबल ।
११. राजपिण्ड खाने वाला शबल, १२. जान-बूझ कर पृथ्वी आदि जीवों का घात करने वाला शबल, १३. जान-बूझ कर असत्य वचन बोलने वाला शबल, १४. जान-बूझ कर बिना दी (हुई) वस्तु को ग्रहण करने वाला शबल, १५. जान-बूझ कर अनन्तर्हित (सचित्त) पृथ्वी पर स्थान, आसन, कायोत्सर्ग आदि करने वाला शबल, १६. इसी प्रकार जान-बूझ कर सचेतन पृथ्वी, सचेतन शिला पर और कोलावास लकड़ी आदि पर स्थान, शयन, आसन आदि करने वाला शबल, १७. जीव-प्रतिष्ठित, प्राण-युक्त, सबीज, हरित-सहित, कीड़े-मकोड़े वाले, पनक, उदक, मृत्तिका कीड़ीनगरा वाले एवं इसी प्रकार के अन्य स्थान पर अवस्थान, शयन, आशनादि करने वाला शबल, १८. जान-बूझ कर मूल-भोजन, कन्द-भोजन, त्वक्-भोजन, प्रबाल-भोजन, पुष्प-भोजन, फल-भोजन और हरितभोजन करने वाला शबल, १९. एक वर्ष के भीतर दश बार जलावगाहन या जल में प्रवेश करने वाला शबल, २०. एक वर्ष के भीतर दश बार मायास्थानों का सेवन करने वाला शबल और २१. बार-बार शीतल जल से व्याप्त हाथों से अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुओं को ग्रहण कर खाने वाला शबल ।
जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि अष्टम गुणस्थानवर्ती निवृत्तिबादर संयत के मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का सत्व कहा गया है । जैसे-अप्रत्याख्यान क्रोधकषाय, अप्रत्याख्यान मानकषाय, अप्रत्याख्यान मायाकषाय, अप्रत्याख्यान लोभकषाय, प्रत्याख्यानावरण क्रोधकषाय, प्रत्याख्यानावरण मानकषाय, प्रत्याख्यानावरण मायाकषाय, प्रत्याख्यानावरण लोभ-कषाय, (संज्वलन क्रोधकषाय, संज्वलन मानकषाय, संज्वलन मायाकषाय, संज्वलन लोभकषाय) स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसकवेद, हास्य, अरति, रति, भय, शोक और दुगुंछा (जुगुप्सा)।
प्रत्येक अवसर्पिणी के पाँचवे और छठे और इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के काल वाले कहे गए हैं। जैसेदुःषमा और दुःषम-दुःषमा । प्रत्येक उत्सर्पिणी के प्रथम और द्वीतिय और इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के काल वाले कहे गए हैं । जैसे-दुःषम-दुःषमा और दुःषमा ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति इक्कीस पल्योपम की कही गई है । छठी तमःप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम कही गई है।
सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम कही गई है । आरणकल्प में देवों की उत्कष्ट स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। अच्यत कल्प में देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है । वहाँ जो देव श्रीवत्स, श्रीदामकाण्ड, मल्ल, कृष्ट, चापोन्नत और आरणावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है । वे देव इक्कीस अर्धमासों (साढ़े दस मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों के इक्कीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा होती
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इक्कीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
समवाय-२१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 27